शुंग कौन थे ? पुष्यमित्र शुंग की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।PDF DOWNLOAD

शुंग कौन थे : मौर्य साम्राज्य की कब्र पर शीघ्र ही शुंग वंश की स्थापना हो गई। मौर्य साम्राज्य का अंतिम सम्राट बृहद्रथ था। वह अपनी विलासिता के लिए प्रसिद्ध था। और अकर्मण्यता उसकी चारित्रिक विशेषता थी । उसके इन दुर्गुणों से लाभ उठाकर उसपर सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने उसका एक दिन कत्ल कर मगध के सिंहासन पर बैठकर शुंग वंश की स्थापना कर दी। ये शुंग कौन थे? यह विषय विवादास्पद है कि क्योंकि इतिहासकारों में एक मत नही है विध्यवदानं नामक बौद्ध ग्रंथ के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र शुंग मौर्य वंश का था। कुछ इतिहासकारों ने उसको ईरान देश का निवासी बताकर उसको विदेशी सिद्ध करने की कोशिश की है। 

पुष्यमित्र शुंग का साम्राज्य संगठन : जिस समय पुष्यमित्र शुंग मगध की गद्दी पर बैठा था उस समय राज्य की स्थिति अत्यंत ही खराब थी। पड़ोस के राज्य (कलिंग, आंध्र और महाराष्ट्र) अपनी स्वाधीनता प्राप्ति के लिए सम्राट को चुनौती दे चुके थे। सीमांत उसके चंगुल से पहले ही आजाद हो चुका था। अतः गद्दी पर बैठते ही पुष्यमित्र शुंग ने अपने छिन्न-भिन्न साम्राज्यों को संगठित करना शुरू किया। सर्वप्रथम उसने कोशल, वत्स, अवन्ति नगर और प्राची आदि को संगठन के सूत्र में बाँधा । अवन्ति पाटलिपुत्र से बहुत दूर पड़ता था । इसलिए उस पर नियंत्रण रखना स्पष्ट के लिए एक कठिन कार्य था । इसलिए उसने आकर प्रांत के मुख्य नगर विदिशा को अपनी दूसरी राजधानी बनाई और वहाँ का शासक उसने अपने पुत्र अग्निमित्र को बना दिया। इस तरह से उसने अपने साम्राज्य को शक्तिशाली बनाकर विस्तार की ओर ध्यान दिया, अर्थात् विजय की ओर मुड़ा । 

विदर्भ राज्य पर आक्रमण : उस समय विदर्भ के राजा यज्ञसेन के पास भी एक विशाल सेना थी । मौका पाकर एक दिन पुष्यमित्र शुंग ने एक बहुत बड़ी सेना लेकर विदर्भ राज्य पर चढ़ाई कर दी। इस युद्ध में पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र ने बड़ी कुशलता से अपनी सेना का संचालन किया । लड़ाई चलती रही। हार-जीत नजर नहीं आने पर अग्निमित्र ने यहाँ कूटनीति से काम लिया। उसने शीघ्र ही यज्ञसेन के चचेरे भाई माधवसेन को कुछ प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया। अब यज्ञेसन की हिम्मत पस्त हो गयी। उसने विवश होकर अग्निमित्र की अधीनता स्वीकार कर ली। अब विदर्भ राज्य को दो टुकड़ों में बाँट दिया गया। एक भाग यज्ञसेन को मिला। इस तरह से विदर्भ राज्य पर अबाध गति से शुंगों की विजय पताका लहराने लगी। फलतः विदर्भ का वैभव शुंग समग्राट के पैरों पर लोट रहा था। 

यवनों के साथ संघर्ष : पुष्यमित्र के शासनकाल की सबसे अत्यधिक महत्वपूर्ण घटना शुंगों पर यवनों का आक्रमण था । इस आक्रमण का शुंगों ने दिल खोलकर • सामना किया। मौर्य वंश के पतन के समय ही भारत के उत्तर-पश्चिम सीमा पर बख्ती यवनों ने अपना राज्य स्थापित कर लिया था और अब उनकी बुरी दृष्टि भारत पर भी पड़ गयी थी। पातन्जली के महाभाष्य, तारानाथ के तिब्बत के इतिहास और गार्गी संहिता से इस घटना का ज्ञान हमें होता है कि यवनों की चढ़ाई इतनी भीषणता के साथ हुई थी कि उन्होंने पहले पश्चिम भारत को हस्तगत कर लिया। इसके बाद लगे हाथ उन्होंने मथुरा और साकेत को भी अपने विजय झंडे के नीचे लाने की कोशिश की, मथुरा पर तो उनका अधिकार शीघ्र ही स्थापित हो गया। बाद में चलकर साकेत ने भी उनका लोहा मान लिया। ऐसी ही विषम परिस्थिति में पुष्यमित्र का पोता वसुमित्र ने यवनों को भारत की पवित्र भूमि से मार भगाने की कोशिश की। इस कार्य में उसने अपनी पूरी ताकत लगा दी। उसने यवनों को सिन्धु नदी के तटपर इतना मारा कि वे लोग भाग गये और वसुमित्र ने उनको भारत से खदेड़ कर ही दम लिया। सिन्धु के तट पर उनकी पराजय इतिहास में प्रसिद्ध है। वास्तव में शुंगों की यह एक बहुत बड़ी विजय थी । 

अश्वमेघ यज्ञ : अपनी इस महान सफलता के उपलक्ष्य में पुष्यमित्र ने एक अश्वमेघ यज्ञ किया। इस यज्ञ में उसने काफी धन खर्च किया। अयोध्या के एक अभिलेख से यह ज्ञात होत है कि पुष्यमित्र ने इस अवसर पर एक नहीं बल्कि दो यज्ञ करवाये थे। हरिवंश पुराण के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि राजा जनमेजय के बाद पुष्यमित्र शुंग ने ही अश्वमेघ यज्ञ करवाया था और प्रसिद्ध पातन्जलि मुनि इस अश्वमेघ यज्ञ के कई पुरोहितों में से एक थे। 

पुष्यमित्र शुंग और बौद्ध धर्म : बौद्ध धर्म के ग्रन्थों के अध्ययन से यह पता चलता है कि पुष्यमित्र एक कट्टर व्यक्ति था । वह बौद्धों के साथ बड़ी ही बुरी तरह से पेश आता था। दिव्यावदन से ज्ञात होता है कि उसने यह घोषित कर दिया था कि जो व्यक्ति एक बौद्ध भिक्षुक (श्रमण ) का सर काट लायेगा उसको 1000 दिनार इनाम में दिया जायेगा। तारानाथ ने भी बौद्धों के प्रति उसके बुरे विचार को व्यक्त करते हुए कहा है कि “पुष्यमित्र धार्मिक प्रश्नों बड़ा ही असहिष्णु था। उसने बौद्धों पर तरह-तरह के अत्याचार किये और उनके संघारामों और मठों को बेरहमी से जलवा दिया था।” प्रो० नागेन्द्र नाथ घोष का भी इस संबंध में यह मत है कि “सम्राट का प्रसिद्ध सेनापति बौद्धों का प्रपीड़क था । ” परन्तु डॉ० एच० सी० राव चौधरी का कथन है कि पुष्यमित्र शुंग बौद्धों का प्रपीड़क था।” परन्तु डॉ० एच० सी० चौधरी का कथन है कि पुष्यमित्र शुंग बौद्धों का प्रपीड़क नहीं था। उसने तो साम्राज्य प्राप्त करने के लाभ में आकर वृहद्रथ का वध किया था धार्मिक कट्टरता की भावना से प्रेरित होकर नहीं। ऊपर की उक्ति तो केवल ग्रन्थकारों के रोष का फल है। यह ठीक है कि पुष्यमित्र के अश्वमेघ यज्ञ से बौद्धों को अवश्य तकलीफ हुई थी लेकिन इसके आधार पर यह कहना कि पुष्यमित्र शुंग बौद्धों का पक्का शत्रु था, सर्वथा अनुचित है। यह भी ठीक है कि उसने बहुत से बौद्ध संघों को करवाया लेकिन इसके पीछे बौद्ध धर्म के प्रति उसके हृदय में घृणा का भाव नहीं था, बल्कि उस समय बौद्ध लोग के राजनीतिक कुनकों से बचने के लिए ही पुष्यमित्र ने बौद्ध मणों को मौत के घाट उतरवाया था और उनको कठोर से कठोर दण्ड दिलवाया था। ऐसे प्रायः प्रत्येक राजा अपने शत्रुओं के साथ कठोरता से पेश आते हैं। इस संबंध में श्री ई० बी० हेवल का मत सत्य के बहुत ही निकट है कि “पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों का दमन इसलिए किया था कि उनके संघ राजनीतिक शक्ति के केन्द्र बन गये थे इसलिए नहीं कि वे एक ऐसे धर्म को मानते थे जिसमें वह विश्वास नहीं करता था। 

पुष्यमित्र के कार्यों का मूल्यांकन : पुष्यमित्र एक महान सेनानी, कुशल शासक और सफल विजेता था। ब्राह्मण होते हुए भी उसको छात्र-धर्म तथा इसके कार्यों से प्रेम था। अतः ऐसा जान पड़ता है कि वह बचपन से ही सामरिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। अपनी शूरता, योग्यता और शुद्ध कार्यों में क्षमता के कारण ही वह मौर्य सम्राट का सेनापति बना था। यह भी उसकी शक्ति तथा योग्यता का ही फल था कि उसने मौर्य साम्राज्य की सारी शक्ति अपने हाथ में ले ली थी। इतना ही नहीं उसने बृहद्रथ का वध कर मौर्य साम्राज्य के कब पर शुंग वंश का फूल खिलाया था। मौर्य साम्राज्य को ताज तो उसके सिर पर आ गया था परन्तु वह ताज सोने का नहीं, काँटों का ताज था। क्योंकि वह अपने 36 साल के शासन काल तक विपत्तियों और कठिनाइयों को झेलता रहा था। विशाल साम्राज्य का अधिपति होने पर भी इस वीर और निस्पृह ब्राह्मण ने भी सम्राट की उपाधि धारण नहीं की । वह हमेशा अपने को सेनापति ही कहता रहा क्योंकि वह पहले मौर्य साम्राज्य का सेनापति था। सम्राट होते हुए भी सम्राट की उपाधि नहीं धारण करना, वास्तव में यह देशभक्ति का उज्जवल प्रतीक है। विजित क्षेत्रों पर उसने अपने बाहुबल से सुव्यवस्थित ढंग का शासन प्रबंध किया । 

उसके शासनकाल में कला और संस्कृति के क्षेत्र में काफी विकास हुआ था। उसने देश में कला और संस्कृति को तहेदिल से प्रोत्साहन दिया था। महर्षि पातन्जलि का महाभाष्य और मनुस्मृति के संस्करण उसी के शासन काल में लिखे गये थे। ब्राह्मण होने की वजह से उसने वैदिक धर्म, वैदिक संस्कृति और वैदिक परंपरा को फिर से स्थापित करने के लिए तहेदिल से सफल प्रयास किया था। उसी ने अश्वमेघ यज्ञ को चलाया था और ब्राह्मण धर्म को राज-धर्म बनाकर उसकी मर्यादा को बढ़ाया था। इस तहर से वह योग्य तथा कुशल राजा था। 



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