प्रश्न – वान ट्यूनेन के कृषि स्थानीयकरण सिद्धान्त की विवेचना कीजिए ।
पृथ्वी पर मानव विभिन्न क्रिया-कलाप करता है। इन क्रिया-कलापों हेतु मानव द्वारा किए गए धरातल के उपयोग को ‘भूमि उपयोग’ (Land use) की संज्ञा दी जाती है। इसे भौगोलिक अध्ययनों में कहीं ‘भूमि प्रयोग’ तो कहीं ‘भूमि संसाधन उपयोग’ (Land Resource Utilization) कहा गया है। भूमि का प्रयोग कृषि, कार्यों, वनों, उद्यानों, आवास क्षेत्रों, सड़क, पार्क, प्रशासनिक व व्यापारिक संस्थाओं तथा विभिन्न नगरीय एवं ग्रामीण कार्यों में होता है। विश्व के विभिन्न भागों में भूमि का अलग-अलग तरीके से प्रयोग होता है।
कृषि क्षेत्रों में भूमि के विविध प्रयोगों का अध्ययन कृषि भूमि के उपयोग के रूप में किया जाता है। जैसे-अकृषित भूमि, कृष्य बंजर भूमि, कृषित भूमि, सिंचित भूमि, असिंचित भूमि, एकफसली भूमि, दोफसली भूमि, बहुशस्यीय भूमि आदि। इसके अन्तर्गत कृषि भूमि की क्षमता एवं उत्पादकता का भी अध्ययन किया जाता है। कृषि भूमि की उपयोग – क्षमता ज्ञात करते समय भूमि उपयोग प्रतिरूप के विभिन्न पक्षों को आधार माना जाता है, जो भूमि को विभिन्न रूपों में प्रभावित करते हैं। भूमि उपयोग क्षमता एवं शस्य गहनता को समानवर्ती माना जाता है। परन्तु वास्तव में भूमि उपयोग क्षमता एवं शस्य गहनता दोनों अलग-अलग पहलू हैं। शस्य गहनता भूमि उपयोग क्षमता के अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं, जबकि भूमि उपयोग क्षमता भूमि उपयोग के विभिन्न पक्षों के सम्मिलित प्रभाव का प्रतिफलन है। इसका निर्धारण एक ओर अकृषित, कृष्य बंजर और कृषित तथा दूसरी ओर सिंचित और द्विशमस्यीय भूमि तथा तीसरी ओर सभी उत्पादित शस्यों के प्रति हेक्टेअर उत्पादन के मध्य संयोग से होता है। भूमि उपयोग के प्रमुख पाँच तत्त्वों – अकृषित, कृष्य बंजर, कृषित भूमि, सिंचन गहनता और शस्य गहनता की अलग-अलग प्रतिशत गणना • कर कोटि गणना ज्ञात की जाती है।
भूमि संसाधन उपयोग में कृषि क्षमता अथवा कृषि उत्पादकता का अध्ययन कृषि-स्तर के क्षेत्रीय प्रतिरूप को समझने के लिए आवश्यक होता है। विभिन्न प्राकृतिक एवं मानवीय प्रयासों के अन्तर्सम्बन्ध से प्रभावित प्रति इकाई कृषि क्षेत्र से प्राप्त अधिकतम शुद्ध लाभ कृषि क्षमता या उत्पादकता है। किसी भी प्रति इकाई कृषित क्षेत्र की उत्पादकता में उससे प्राप्त शुद्ध लाभ एवं उस इकाई का क्षेत्रीय विस्तार दोनों सम्मिलित हैं।
वान थ्यूनेन का सिद्धान्त : कृषि के लिए किसी क्षेत्र – विशेष में उत्पन्न होनेवाली विभिन्न सम्भावित फसलों में कौन-सी फसल उगाई जाए, इसका निर्णय करना पड़ता है। इसके निर्णय में कृषि के स्थानीयकरण का सिद्धान्त सहायक होता है। कृषि स्थानीयकरण का सिद्धान्त जर्मनी के प्रख्यात विद्वान वान थ्यूनेन (Von Thunen) ने 1926 में प्रतिपादित किया था। इस सिद्धान्त से कृषि के स्थानीयकरण की विशद व्याख्या होती है तथा नगर की स्थिति पर भी प्रकाश पड़ता है। कृषि स्थानीयकरण सिद्धान्त का मौलिक आधार दो क्षेत्रों के तुलनात्मक लाभ ( Comparative Advantage) का सिद्धान्त है।
वॉन ध्यूनेन के सिद्धान्त की निम्नलिखित मान्यताएँ हैं :
- (i) वान थ्यूनेन ने एक ऐसे विलग प्रदेश (Isolated State) की कल्पना की है जिसमें एक ही नगर स्थित हो तथा उसके चतुर्दिक विस्तृत कृषि क्षेत्र हो । उपर्युक्त नगर ही इस प्रदेश में उत्पादित फसलों का एकमात्र बाजार केन्द्र है जहाँ कोई आयात नहीं होता है। यहाँ तक कि किसी फसल के उत्पादन आधिक्य का विक्रय किसी अन्य प्रदेश में नहीं होता है।
- (ii) इस विलग प्रदेश में सर्वत्र एक जैसा प्राकृतिक वातावरण-धरातल, जलवायु तथा मिट्टी की उत्पादकता पाई जाती है, जो प्रदेश में सभी फसलों के उत्पादन की अनुकूल दशाएँ प्रस्तुत करती हैं।
- (iii) उक्त प्रदेश में एक नगर के अतिरिक्त सर्वत्र ग्रामीण जनसंख्या मिलती है। इस प्रदेश के कृषक अधिकतम लाभ कमाने तथा माँग के अनुरूप फसलों की किस्मों में फेर-बदल करने में सक्षम हैं।
- (iv) इस कल्पित प्रदेश में परिवहन का एकमात्र साधन घोड़ागाड़ी है।
- (v) इस प्रदेश में परिवहन मूल्य भार तथा दूरी के प्रत्यक्ष अनुपात में बढ़ता है।
वान थ्यूनेन ने बताया कि विलग प्रदेश में केन्द्रीय नगर के चारों ओर संकेन्द्रीय वृत्त- खण्डों (concentric zones) में नगर से बढ़ती हुई दूरी के अनुसार विभिन्न फसलों का उत्पादन होता है। इन पेटियों की बाह्य सीमाएँ जहाँ क्रमशः घटते हुए लाभों से निर्धारित होती हैं, वहीं आन्तरिक सीमाएँ अधिकतम लाभ प्राप्त करनेवाले विकल्पों से निश्चित की जाती हैं। लाभप्रद विकल्पों की संख्यां नगर-बाजार की दूरी के साथ घटती जाती है। नगर के सबसे निकट प्रथम वृत्तखण्ड में शाक, सब्जी की कृषि तथा दुग्ध से संबंधित पशुपालन होगा क्योंकि इनका अधिक दूरी तक सुरक्षित परिवहन सम्भव नहीं होता। यह नगर से उतने ही दूरवर्ती क्षेत्र तक विस्तृत होगा जितना नगर की आवश्यकता पूर्ति के लिए आवश्यक होगा। द्वितीय वृत्तखण्ड में मुख्यतया ईंधन की लकड़ी का उत्पादन होगा। अधिक भारी होने के कारण इसका परिवहन भी अधिक दूर तक करना खर्चीला होता है । इसीप्रकार परिवहन व्यय की सापेक्षिक दर के अनुसार तृतीय

चित्र 1 – वान थ्यूनेन के कृषि उत्पादन का स्थानीयकरण मॉडल
वृत्तखण्ड में परताभूमि और चारागाहविहीन क्षेत्र में अन्न की कृषि होगी । चतुर्थ वृत्तखण्ड में परती और चरागाह के साथ अन्न की कृषि पाई जाएगी। पंचम वृत्तखण्ड में परती, चरागाह , तथा अन्न की कृषि, तीनों का प्राय: समान महत्त्व रहेगा। छठे वृत्तखण्ड में पशुपालन अधिक होगा।
वान थ्यूनेन ने स्पष्ट किया कि नगर के समीपतवर्ती वृत्तखण्डों में अधिक लाभप्रद कृषि ही होगी । नष्ट होनेवाली या भारी पदार्थों की कृषि भी नगर के इस वृत्तखण्ड में मिलेगी क्योंकि इन्हें दूर ले जाने से उनके नष्ट होने की सम्भावना रहती है तथा परिवहन व्यय अधिक होता है।
अत:, इस विलग प्रदेश में नगर में बढ़ती दूरी के अनुसार विभिन्न वृत्तखण्डों में विभिन्न फसलों का उत्पादन स्पष्टत: परिवहन व्यय तथा फसलों से प्राप्त सापेक्षिक लाभ के अनुसार निर्धारित होता है जिसे निम्नलिखित ढंग से ज्ञात किया जाता है।
फसल विक्रय से प्राप्त लाभ = फसल विक्रय से प्राप्त मूल्य – उत्पादन लागत + परिवहन व्यय ।
उपर्युक्त रेखाचित्र 1 में बाएँ विलग प्रदेश की दशाएँ प्रदर्शित की गई हैं जबकि दाएँ परिवहन के साधन तथा उपनगर के कारण कृषि उत्पादन की दशाएँ स्पष्ट की गई हैं। वान थ्यूनेन ने बाद में उस प्रदेश से प्रवाहित एक नौगम्य नदी तथा उपगनर का भी प्रभाव प्रदर्शित किया है। नौगम्य नदी में परिवहन सुविधा द्वारा परिवहन व्यय के अपेक्षाकृत कम हो जाने के कारण उपर्युक्त वृत्तखण्डों का विस्तार पूर्णतः संकेन्द्रीय न होकर नदी के तटवर्ती क्षेत्रों में उस सीमा तक हो जाता है जहाँ तक इन वस्तुओं की कृषि से लाभ मिलता है । प्राय: उपनगर का अलग लघु प्रदेश भी बन जाता है।
वॉन थ्यूनेन के सिद्धान्त के सर्मथकों में ए० ग्रोटेवॉल्ड प्रमुख हैं। 1959 में Economic Geography में उनका तत्संबंधी शोधपत्र प्रकाशित हुआ, जिसमें उत्पादन लागत, परिवहन व्यय तथा लाभ नगर से बढ़ती दूरी के साथ दर्शाया गया । अग्र तालिका से स्पष्ट है कि लकड़ी का उत्पादन नगर से 3 इकाई दूरी तक हो सकता है, क्योंकि यहाँ तक आने में उत्पादन लागत एवं परिवहन मूल्य संयुक्त रूप से बाजार में लकड़ी की कीमत के बराबर हो जाता है। इसलिए 3 इकाई के सामने लाभ शून्य दर्शाया गया है। इसी तरह अन्न का उत्पादन नगर की बढ़ती दूरी के साथ 5 इकाई तक हो सकता है क्योंकि इस इकाई तक उत्पादन लागत एवं परिवहन व्यय मिलकर बाजार में अन्न की कीमत के बराबर हो जाते हैं। यहाँ तक पहुँचने में लाभ शून्य हो जाता है। अतः, यह कहा जा सकता है कि किसी फसल विशेष का उत्पादन नगर से उस दूरी तक हो सकेगा जहाँ तक उसके उत्पादन लागत एवं बाजार में पहुँचाने में लगा परिवहन व्यय का योग बाजार में प्रचलित कीमत के बराबर हो । नगर से दूर, सीमान्त क्षेत्र की उस भूमि को जहाँ उत्पादन में कोई लाभ नहीं मिलता है, उसको लगान शून्य भूमि (no rent value) कहा जाता है। इस भूमि पर उत्पादन की तुलना में बाजार से निकट उस फसल का उत्पादन करने से जो अतिरिक्त लाभ प्राप्त होता है, उसे आर्थिक लगान ( economic rent ) कहा जाता है। चित्र में यह दिखाया गया है कि आर्थिक लगान के आधार पर भूमि पर उपयोग निर्धारित होता है। आर्थिक लगान की मात्रा किसी फसल के प्रति एकड़ उत्पादन की दर एवं उसको बाजार भेजने में लगे परिवहन लागत पर निर्धारित होती है। इसीलिए भिन्न-भिन्न फसलों के लिए आर्थिक लगान भी भिन्न-भिन्न होता है। अत: सभी चीजों को समान मानते हुए चित्र में A, B, C और D फसलों के लगान एवं बाजार से दूरी के सम्बन्ध को प्रदर्शित किया गया बाजार में दूर उगायी जानेवाली फसलों का लगान मूल्य दूरी के अनुपात में कम होता जाता है। अतः, आर्थिक लगान एवं दूरी का सम्बन्ध दिखानेवाली रेखाएँ सीधी हैं और दाहिनी तरफ गिरती हुई प्रदर्शित हैं। सभी रेखाओं की ढाल – प्रवणता अलग-अलग है क्योंकि सबकी उत्पादन दर और परिवहन दर अलग-अलग है। भारी या शीघ्र खराब होनेवाली वस्तुओं को अधिक दूर तक नहीं ले जाया जा सकता है, परन्तु जिन वस्तुओं की प्रति एकड़ उपज कम है या परिवहन व्यय की दर कम है, उनको अधिक दूर उगाया जा सकता है। चित्र 2 के अनुसार A फसल का उत्पादन 4.5 मील, B का 8 मील, C का 25 मील तथा D का 40 मील तक उत्पादन हो सकता है। क्रमशः उपर्युक्त दूरियों तक प्रत्येक फसल के उत्पादन से कुछ-न-कुछ आर्थिक लगान मिलता है।
नगर से बढ़ती दूरी के साथ लाभ का आकलन

A फसल के उत्पादन की सर्वोत्तम दशा सिर्फ 1.7 मील की दूरी तक है, क्योंकि उसके आगे इससे प्राप्त आर्थिक लगान B की तुलना में कम हो जाता है। इसी तरह B का उत्पादन 5 मील, C का उत्पादन 19 मील तथा D का उत्पादन 40 मील तक हो सकता है। बाजार को केन्द्र मानकर यदि उन्हीं दूरियों की त्रिज्या से वृत्त खींचें तो बाजार के चतुर्दिक विभिन्न फसलों के उत्पादनवाले संकेन्द्रीय वृत्तखण्ड बन जाते हैं। A फसल शाकसब्जी या दुग्ध जैसे जल्दी नष्ट होनेवाली, B भारी फसल (लकड़ी), C अन्न की फसल तथा D पशुपालन को दर्शाती हैं।

आलोचना : वान थ्यूनेन के कृषि स्थानीयकरण सिद सिद्धान्त की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि इस सिद्धान्त की कल्पित मान्यताएँ वास्तविक रूप में नहीं मिलती हैं।
अतएव उनके अनुसार प्रदर्शित कृषि उत्पादन का संकेन्द्रीय वृत्तखण्ड वास्तविक रूप में किसी प्रदेश में नहीं पाया जाता। वस्तुत: परिवहन के साधनों एवं उनके घनत्व में भिन्नता मिलती है। इसीप्रकार वातावरण की दशाओं, विशेषतया मिट्टी की उत्पादकता में भी पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। तकनीकी विकास के साथ नष्ट होनेवाली वस्तुओं में, यथा शाक, सब्जी, दूध, अण्डा आदि को प्रशीतन एवं तीव्रगामी परिवहन के साधनों व अच्छी सड़कों द्वारा अधिक
दूर तक ले जाना सम्भव हो गया हैं। ईंधन के रूप में लकड़ी के अतिरिक्त अनेक विकल्प विकसित हो गए हैं। फिर भी वान ध्यूनेन के सिद्धान्त का महत्त्व सदा बना रहेगा, क्योंकि यह कृषि के स्थानीयकरण का एक मौलिक सिद्धान्त है, जिसमें वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप संशोधन करके वस्तुओं को उपयोगी बनाया जा सकता है।