गुप्तों की सांस्कृतिक उपलब्धियों (देनों) की विवेचना करें ।PDF DOWNLOAD

गुप्तकाल में मूर्तिकला, चित्रकला, भवन-निर्माण कला, शिल्प कला, धातु कला तथा संगीत आदि कलाओं के क्षेत्र में आश्चर्यजनक उन्नति हुई। गुप्तकाल में मूर्ति पूजा तथा मूर्तिकला के विकास के साथ ही स्थापत्य कला में भी विकास हुआ। अनेक मंदिरों का निर्माण किया गया जिनमें देव मूर्तियों की प्रतिस्थापना की गई। विदेशी मूर्ति भजक आक्रमणकारियों तथा समय के प्रभाव से उपलब्ध भग्नावशेषों से स्पष्टतः सिद्ध होता है कि गुप्तकालीन कला उच्च कोटि की थी। देवगढ़ (झांसी) का दशावतार मंदिर कला का उत्कृष्ट प्रतीक है। इसी समय का कानपुर में भीतर गाँव का मंदिर विशेष प्रशंसनीय है। जबलपुर जिले के तिगवा गाँव का मंदिर, एहोला से दुर्गामन्दिर, बोध गया का महाबोधि मंदिर भी गुप्तकाल की कला के ज्वलन्त प्रमाण हैं। गुप्तकाल में इन सभी मंदिरों का निर्माण प्रस्तर खण्डों द्वारा किया गया। बंगाल में पहाड़पुर का मंदिर है जिसमें गुप्तकाल में ईंटों का प्रयोग किया गया तथा शिखर भी बनाया गया। 

मंदिरों के अलावा इस युग में अनेक स्तूपों, स्तम्भों, बौद्ध बिहारों आदि का भी निर्माण हुआ। दिल्ली स्थित महरौली स्तम्भ इस युग का निर्मित आश्चर्यजनक स्तम्भ है जिसकी पॉलिश पर धूप तथा वर्षा का कोई प्रभाव नहीं पड़ा तथा हजारों वर्षों के बाद भी वह अभी भी ज्यों का त्यों चमक रहा है। गुप्तकाल में मूर्तियों का निर्माण अत्यधिक मात्रा में हुआ। फलतः शिल्प कला का भी विकास हुआ। गुप्तकालीन शिल्पकला विदेशी प्रभाव से मुक्त थी । गुप्त काल में बौद्ध धर्मों, जैन धर्मों तथा हिन्दू धर्मों को भी अनेक मूर्तियाँ बनी जिनमें गौतम बुद्ध की मूर्तियाँ सर्वश्रेष्ठ है। सारनाथ की बुद्ध जी की बैठी हुई मूर्ति, मथुरा में बुद्ध जी की बैठी हुई मूर्ति मथुरा में बुद्ध जी की खड़ी मूर्ति तथा सुल्तानगंज में प्राप्त होने वाली बुद्ध जी की ताम्र मूर्ति इस समय की मूर्ति कला की सर्वोत्कृष्ट कृतियाँ हैं। इस समय वर्मिघम के अजायण घर की शोभा बढ़ा रही है। गौतम बुद्ध की मूर्तियों के अतिरिक्त इस काल में वैदिक धर्म के प्रभाव दोनों – ब्रह्मा, विष्णु, महेश, पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश और सूर्य आदि देवताओं को बहुत सी मूर्तियाँ बनी। 

गुप्तकालीन कला की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए R. S. Tripathy ने लिखा है, “कुल मिलाकर गुप्तकाल के शिल्पकारों की कृतियों की यह विशेषता है कि उसमें जो असंयम का अभाव यथाशैली का सौष्ठव पाया जाता है । इस प्रकार गुप्तकाल में मूर्तिकला के क्षेत्र में प्रशंसनीय उन्नति हुई तथा भारतीय कला का प्रभाव विदेशों में भी दृष्टिगोचर होता है। नीलकान्त शास्त्री के अनुसार, “शिल्पकला तथा चित्रकला के क्षेत्र में गुप्तकालीन कला भारतीय प्रतिभा के चुड़ान्त विकास का प्रतीक है और इसका प्रभाव सम्पूर्ण एशिया पर दीप्यिमान है।” 

मूर्तिकला के साथ ही चित्रकला का भी इस युग में विकास हुआ। अजन्ता एलोरा, बौद्ध अकादमी तथा सितन वसल की गुफाओं में गुप्तकालीन चित्रकला के अनोखे उदाहरण प्राप्त होते हैं। गुप्तकाल में संगीतकला का भी काफी विकास हुआ। समुद्रगुप्त एक अच्छा वीणा वादक था। कुछ ऐसी मुद्राएँ प्राप्त हुई है जिनपर उसे वीणा बजाते हुए दिखलाया गया है। कहा जाता है कि उसने वीणा बजाने में नारद को भी लज्जित कर दिया था। इस काल में धातु कला में भी आश्चर्यजनक उन्नति हुई। नालन्दा में 80 फीट ऊँची बुद्ध जी की ताम्र, सुल्तान गंज में 71⁄2 फीट की बुद्ध जी की मूर्ति धातु कला के विकास के ज्वलन्त उदाहरण हैं। 

गुप्त काल में मुद्रण की कला में पर्याप्त विकास हुआ। इस समय की मुद्रा भारतीय स्वर्ण से निर्मित है। नाट्यकला का भी अभूतपूर्व विकास हुआ था। 


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