प्रश्न- गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग क्यों कहा जाता है ?
गुप्त राजवंश का शासनकाल भारतीय इतिहास में स्वर्णयुग के नाम से पुकारा जाता है। इस युग में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में अत्यधिक उन्नति हुई। गुप्तकाल में देश में सुख-शान्ति व समृद्धि बढ़ी तथा साहित्य, कला, विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में आश्चर्यजनक उन्नति हुई । वास्तव में इस युग में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का अभूतपूर्व विकास हुआ। तत्कालीन भारत की इसी सर्वागीण सम्पन्नता के आधार पर, इतिहासकारों ने इसे ‘स्वर्णयुग’ की संज्ञा दी है। इसकी तुलना विश्व के पेरिक्लिज, आगस्टस, एलिजाबेथ के कालों से की गई है। प्रसिद्ध इतिहासकार बार्नेट के अनुसार इस युग की तुलना यूनान के पेरिक्लिज युग से की जा सकती है।
अब हम इस गुप्त युग की उन्हीं विशेषताओं पर एक विहंगम दृष्टि डालेंगे, जिनके कारण उसे ऐसी महान संज्ञा दी गई है-
साहित्य के क्षेत्र में उन्नति
गुप्त-काल में साहित्य के क्षेत्र में आश्चर्यजनक उन्नति हुई। इस युग में संस्कृत-साहित्य का अत्यधिक विकास हुआ। गुप्त सम्राटों ने संस्कृत को राजभाषा एवं राष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता दी और इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया । गुप्त युग को संस्कृत-साहित्य के सृजन का स्वर्णकाल कहा जा सकता है। इस क्षेत्र में निम्न उन्नति हुई-
1. काव्य : गुप्त-काल में महाकाव्य, खण्ड-काव्य आदि की बहुत उन्नति हुई। कालिदास इस युग के एक महान् कवि तथा नाटककार थे। उन्होंने ‘कुमारसम्भव’ तथा ‘रघुवंश’ नामक दो महाकाव्यों तथा मेघदूत और ऋतुसंहार नामक दो खण्ड-काव्यों की रचना की। उन्होंने इन काव्य-ग्रन्थों में भाषा, भाव और अलंकारों की जो प्रतिभा दिखाई है, वह आश्चर्यजनक है। डॉ. आर. सी. मजूमदार का कथन है कि, “कालिदास गुप्तकाल में साहित्याकाश पर सबसे चमकदार नक्षत्र है जिन्होंने अपना प्रकाश सारे संस्कृत-साहित्य पर डाला है। वह सर्वसम्मति से सबसे महान् कवि और नाटककार थे और उनकी कृतियाँ सब युगों में अत्यन्त प्रसिद्ध और सर्वप्रिय रहीं ।” भारवि नाम के कवि ने ‘किरातार्जुनीयम्’ की रचना की। भट्टि ने ‘भट्टि काव्य’ की रचना की । इस युग के अन्य कवियों में मातृगुप्त, सौमिल्ल आदि उल्लेखनीय थे।
2. प्रशस्तियाँ : हरिषेण ने ‘प्रयाग प्रशस्ति’ की रचा की, जो कविता की दृष्टि से बहुत उच्चकोटि की है। उसी प्रकार मन्दसौर – प्रशस्ति का रचयिता वत्स भट्टि इसी काल में उत्पन्न हुआ था।
3. नाटक : कालिदास गुप्तकाल का महान् नाटककार था। उसने तीन नाटक लिखे–‘मालविकाग्निमित्रम्’, ‘विक्रमोर्वशीयम्’ तथा ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’। इनमें अभिज्ञान शाकुन्तलम् संस्कृत साहित्य का सर्वश्रेष्ठ नाटक माना जाता है। गुप्त काल का दूसरा प्रसिद्ध नाटककार विशाखदत्त था। उसने ‘मुद्राराक्षस’ तथा ‘देवीचन्द्र गुप्तम्’ नामक दो नाटक लिखें। ‘मुद्राराक्षस’ नाटक में चाणक्य का चरित्र बड़ा ही प्रभावशाली है। तीसरा प्रमुख नाटककार शूद्रक था जिसने ‘मृच्छकटिकम्’ नामक नाटक की रचना की। इस नाटक की विशेषता यह है कि नाटककार ने समाज में निम्न कहे जाने वाले लोगों को भी अपने नाटक का पात्र बनाया है।
4. कथा – साहित्य : गुप्त काल में कथा – साहित्य का भी पर्याप्त विकास हुआ, सुबन्धु इस काल का प्रसिद्ध लेखक था जिसने ‘वासवदत्ता’ नामक ग्रंथ की रचना की । विष्णु शर्मा ने ‘पंचतंत्र’ नामक ग्रंथ की रचना की । इस पुस्तक का 50 से भी अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
5. व्याकरण और कोश : गुप्तकाल में व्याकरण संबंधी साहित्य का भी अद्भुत विकास हुआ। इस युग में चन्द्रगोमिन नामक बौद्ध विद्वान ने ‘चन्द्र-व्याकरण’ की रचना की जिसे लंका, तिब्बत, नेपाल तथा कश्मीर में बहुत लोकप्रियता प्राप्त हुई। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान अमरसिंह ने ‘अमरकोश’ नामक ग्रंथ की रचना की।
6. धार्मिक साहित्य : गुप्तकाल में धार्मिक साहित्य का भी पर्याप्त विकास हुआ। इस युग में पुराणों को नवीन रूप दिया गया। अनेक पुराणों के संशोधित संस्करण लिखे गये । मनुस्मृति के आधार पर इस काल में याज्ञवल्क्य, कात्यायन, बृहस्पति, नारद आदि स्मृतियों की रचना की गई। कामन्दक ने ‘नीतिसार’ तथा वात्स्यायन ने ‘कामसूत्र’ की रचना की।
7. दार्शनिक साहित्य : गुप्त युग में दार्शनिक साहित्य का भी पर्याप्त विकास हुआ। ईश्वर कृष्ण ने ‘सांख्यकारिका’ नामक ग्रंथ की रचना की। बाल्यायन ने न्याय सूत्र पर ‘यायभाष्य’ लिखा। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान असंग ने ‘महायान सम्परिग्रह’, ‘योगाचार ‘भूमिशाख’ आदि की रचना की। बौद्ध आचाय वसुबन्धु ने ‘अभिधर्म कोण’ नामक ग्रन्थ लिखा। बुद्ध धीप ने ‘सुमंगल विलासिनी’ नामक ग्रंथ की रचना की, दिन्नाग ने ‘प्रमाण समुच्चय’ और ‘न्यायप्रवेश’ ग्रन्थ लिखें। गुप्त काल में जैन ग्रन्थों को भी लिपिबद्ध किया गया। प्रसिद्ध जैन आचार्य सिद्धसेन ने ‘तत्वानुसारिणी तत्वार्थ टीका’ नामक मौलिक ग्रन्थ की रचना की। उसने ‘न्यायावतार’ नामक ग्रंथ की भी रचना की जो जैन न्याय का सबसे प्रामाणिक एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ माना जाता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि गुप्तकाल में साहित्य के क्षेत्र में आश्चर्यजनक उन्नति हुई । डाँ. रतिभानुसिंह नाहर का कथन है कि, “पेरिक्लीज के युग और एलिजावेथ के शासनकाल की तरह गुप्तयुग भी विशुद्ध साहित्य के क्षेत्र में मौलिक सृजन का काल था । चीनी इतिहास के स्वर्ण युग में तुंग- काल की भाँति गुप्तयुग में कविता का विकास अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया था।”
विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति
1. ज्योतिष के क्षेत्र में विकास : गुप्तकाल में ज्योतिष विज्ञान की पर्याप्त प्रगति हुई। आर्यभट्ट गुप्तकाल का महान् ज्योतिषी था । उसने पृथ्वी की जो परिधि बताई थी, वह आज भी प्रामाणिक मानी जाती है। वह प्रथम भारतीय वैज्ञानिक था जिसने सबसे पहले यह ज्ञात किया था कि पृथ्वी गोल है और वह अपनी धुरी पर घूमती है, उसने सूर्य और चन्द्रमा के ग्रहण के विषय में इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि ग्रहण में राहू और केतु का कोई स्थान नहीं है बल्कि वह चन्द्रमा व पृथ्वी की छाया का फल है। उसने भिन्न-भिन्न नक्षत्रों और ग्रहों की गति के विषय में भी पता लगाया। उसने ‘आर्यभट्टीयम’ नामक ग्रंथ की रचना की।
वराहमिहिर भी गुप्तकाल का एक प्रसिद्ध ज्योतिषी था। उसने ज्योतिष के संबंध में अनेक पुस्तकें लिखीं जिनमें ‘लघुजातक’, ‘वृहज्जातक’, ‘वृहत्संहिता’, ‘पंच सिद्धान्तिका’ आदि उल्लेखनीय हैं। इनमें ‘वृहत्संहिता’ सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसमें नक्षत्रों की गति व उससे मानव-समाज पर पड़ने वाले प्रभाव पर प्रकाश डाला गया है।
ब्रह्मगुप्त भी गुप्तकाल का प्रसिद्ध ज्योतिषी था जिसने ‘ब्रह्म सिद्धांत’ नामक ग्रंथ की रचना की। उसने न्यूटन से शताब्दियों पहले यह ज्ञात किया कि, “सभी चीजें प्रकृति कें. नियमानुसार पृथ्वी पर गिरती हैं क्योंकि पृथ्वी प्रत्येक वस्तु को अपनी ओर खींचती हैं।
2. गणित के क्षेत्र में विकास : गुप्तकाल में गणित के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति हुई। आर्यभट्ट गुप्तकाल का सबसे प्रसिद्ध गणितज्ञ था। उसने ‘आर्यभट्टीयम’ नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें अंकगणित, बीजगणित तथा रेखागणित के सिद्धांतों व सूत्रों का प्रतिपादन किया गया है। गणित के क्षेत्र में इस काल की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि दशमलव पद्धति की खोज थी। दशमलव पद्धति ने अंक गणना के शास्त्र को बड़ा सरल बना दिया।
3. चिकित्सा के क्षेत्र में विकास : इस युग में चिकित्सा का भी विकास हुआ। नागार्जुन ने ‘रस-चिकित्सा’ नामक एक नवीन चिकित्सा पद्धति का आविष्कार किया। उसका यह मानना था कि सोना, चाँदी, लोहा, तांबा आदि खनिज धातुओं से रोगों का निवारण किया जा सकता है। उसने पारे का भी महत्वपूर्ण आविष्कार किया । धन्वन्तरि भी इसी युग में हुए जो आयुर्वेद के मुख्य आचार्य माने जाते हैं। आयुर्वेदाचार्य वाणभट्ट भी इस युग का एक प्रसिद्ध चिकित्सक था जिसने ‘अष्टांग हृदय’ नामक ग्रंथ की रचना की। पालकाप्य नामक एक पशु चिकित्सक ने ‘हस्त्यायुर्वेद’ नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें हाथियों के रोगों, उनके निदान और चिकित्सा का वर्णन है । ‘नवनीतकम’ नामक पुस्तक में भी विभिन्न रोगों के विद्वानों के नुस्खों तथा उपचार विधियों का उल्लेख किया गया है।
4. रसायनशास्त्र तथा धातु विज्ञान की उन्नति : गुप्तकाल में रसायनशास्त्र तथा धातु विज्ञान की भी बड़ी उन्नति हुई। दिल्ली के निकट बना हुआ महरौली का लौह-स्तम्भ गुप्तकालीन रसायनशास्त्र तथा धातु विज्ञान की उन्नति का श्रेष्ठ उदाहरण है । यह स्तम्भ 24 फीट ऊँचा है और इसका वजन लगभग साढ़े छः टन है। 1500 वर्ष से धूप तथा वर्षा में खड़ा रहने पर भी यह न तो खराब हुआ है और न ही इसको जंग लगा है। इतने भारी स्तम्भ का ढाला जाना आज भी सबके लिए आश्चर्य का विषय बना हुआ है।
कला के क्षेत्र में उन्नति
गुप्तकाल में वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीतकला आदि की अत्यधिक उन्नति हुई। डाँ. वी. एस. अग्रवाल का कथन है कि “गुप्तकाल में कला की अभूतपूर्व उन्नति हुई । गुप्तकाल का गौरव और वैभव दर्शनीय कलाकृतियों के द्वारा ही स्थायी और चिरस्मरणीय हो गया है। ‘
1. वास्तुकला : गुप्तकाल में वास्तुकला की विशेष उन्नति हुई । गुप्त सम्राटों ने अनेक राजमहलों, मन्दिरों, भवनों आदि का निर्माण करवाया। गुप्तकालीन मंदिरों में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं- 1. भूमरा का शिव मंदिर 2. जबलपुर जिले में तिगवा नामक स्थान पर स्थित विष्णु मंदिर 3. अजयगढ़ का पार्वती मंदिर 4. भीतर गाँव का मंदिर 5. देवगढ़ का दशावतार मंदिर 6. बौद्ध गया का महाबोधि मंदिर |
इन समस्त मंदिरों में देवगढ़ का मन्दिर तथा भीतर गाँव के मंदिर सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। ये गुप्तकालीन वास्तुकला के श्रेष्ठ नमूने हैं। इस युग में अनेक गुफाओं, स्तूपों, मठों आदि का भी निर्माण करवाया गया। सारनाथ का स्तूप गुप्तकालीन स्तूप कला का एक श्रेष्ठ नमूना है। गुप्तकाल की गुफाओं में अजन्ता की गुफायें विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। गुप्तकाल के गुफा-मंदिरों में उदयगिरि का गुफा मंदिर उस काल की कला का अद्वितीय नमूना है।
2. मूर्तिकला : मूर्तिकला के क्षेत्र में गुप्त युग के शिल्पियों ने भारत की मूर्तिकला में एक नूतन युग को जन्म दिया। गुप्त-युगीन मूर्तिकला, भावपूर्ण ओजस्विता, आध्यात्मिक प्रभावोत्पादकता, सहज प्राकृतिकता, अंग-सौष्ठवता, कलात्मक सुन्दरता तथा शिल्पीय कुशलता में अनुपम है। इस काल की मूर्तिकला के कुछ इतने सुन्दर नमूने प्राप्त हुए हैं जो कि संसार के कला के इतिहास में अद्वितीय हैं।.
(क) बौद्ध मूर्तियाँ : (i) सारनाथ की बुद्ध मूर्ति : इसमें भगवान बुद्ध पद्मासन लगाये धर्म चक्र प्रवर्तक मुद्रा में बै े हुए हैं। यह मूर्ति बड़ी प्रभावशाली हैं तथा अपनी सुन्दरता, गम्भीरता एवं भावव्यंजना के लिए विख्यात है।
(ii) मथुरा की बुद्ध मूर्ति : इसमें भगवान बुद्ध खड़े हुए दिखलाये गये हैं।
(iii) सुल्तानगंज की बुद्ध मूर्ति : यह तांबे की बनी हुई 7 फीट ऊँची है। इसमें महात्मा बुद्ध खड़े हुए दिखलाये गये हैं।
(ख) पौराणिक मूर्तियाँ : (i) विष्णु की मूर्ति : झांसी जिले में देवगढ़ नामक स्थान पर विष्णु की सुन्दर मूर्ति प्राप्त हुई है। यह मूर्ति हिन्दू मूर्तिकला की श्रेष्ठ कृतियों में मानी जाती है।
(ii) उदयगिरि की वराह मूर्ति : मध्य प्रदेश में उदयगिरि से प्राप्त वराह की मूर्ति गुप्तकालीन मूर्तिकला का एक श्रेष्ठ नमूना है। डॉ. वी. एस. अग्रवाल का कथन है कि “उदयगिरि की विशाल वराह मूर्ति को गुप्त मूर्तिकारों की कुशलता का स्मारक माना गया है।”
(iii) गोवर्धनधारी कृष्ण : यह मूर्ति काशी के समीप एक टीले से मिली थी और अब सारनाथ के संग्रहालय में सुरक्षित है। इसमें भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को गंद की तरह उठा रखा है।
(iv) कौशाम्बी की सूर्य मूर्ति : कौशाम्बी से प्राप्त सूर्य की मूर्ति बड़ी सुन्दर और चित्ताकर्षक है।
(v) रूपवास की मूर्तियाँ : भरतपुर जिले में रूपवास नामक स्थान से बलदेव तथा लक्ष्मीनारायण की मूर्तियाँ मिली हैं। ये मूर्तियाँ भी गुप्तकालीन मूर्तियों में बड़ी प्रसिद्ध हैं।
(ग) जैन मूर्तियाँ : गुप्तकाल में कुछ जैन मूर्तियाँ भी निर्मित हुई थीं। मथुरा में महावीर स्वामी की एक मूर्ति मिली है जिसमें महावीर स्वामी पद्मासन लगाये ध्यानमग्न बैठे हैं।
(घ) मिट्टी की मूर्तियाँ : गुप्तकाल की मिट्टी की बनी हुई मूर्तियाँ भी बड़ी लोकप्रिय थीं। इस प्रकार की बहुत-सी मूर्तियाँ सारनाथ, कौशाम्बी, मथुरा आदि स्थानों से प्राप्त हुई हैं।
3. चित्रकला : गुप्तकाल में चित्रकला के क्षेत्र में अत्यधिक विकास हुआ। गुप्तकालीन चित्रों में सबसे अच्छे नमूने अजन्ता की गुफाओं में मिलते हैं। इन गुफाओं की दीवारों पर महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित चित्र, देवताओं, अप्सराओं के चित्र, सम्राटों, राजकुमारों एवं राजकुमारियों के रहन-सहन के चित्र, विभिन्न पशु-पक्षियों के चित्र बड़े सुन्दर ढंग से चित्रित किये गये हैं। अजन्ता की गुफा नं, 16 में ‘मरणासन्न राजकुमारी’ का चित्र गुप्तकालीन चित्रकला का श्रेष्ठ नमूना है। इसी प्रकार ‘महाभिनिष्क्रमण’ नामक चित्र बड़ा प्रभावशाली है। श्रीमती हेरिंघम का कथन है, “अजन्ता के चित्रों के कारण भारत मानवता की श्रद्धा का अधिकारी है।” अजन्ता की 17वीं गुफा के चित्र भी बड़े सुन्दर और आकर्षक हैं। इस गुफा में ‘माता और पुत्र’ का एक प्रसिद्ध चित्र है। इसी गुफा में एक अन्य चित्र राजकीय जुलूस का है। ग्वालियर के निकट बाघ की गुफाओं में महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित चित्र, बोधिसत्वों के चित्र तथा जन साधारण के रहन-सहन के चित्र बड़े सुन्दर ढंग से चित्रित किये गये हैं। कालिदास ने ‘मेघदूत’ में अलका के राजप्रासादों को ललित लीलाओं के चित्रों से सचित्रित बताया है। ‘रघुवंश’ में अयोध्या के राजप्रासाद की भित्तियों पर बने चित्रों का उल्लेख है। ‘मालविकाग्निमित्र’ में एक समूह चित्र फलक का भी उल्लेख किया गया है।
4. संगीत कला : गुप्तकाल में संगीत कला का भी बहुत विकास हुआ। समुद्रगुप्त संगीत कला का बड़ा प्रेमी था । समुद्रगुप्त के कुछ ऐसे सिक्के प्राप्त हुए हैं जिनमें वह वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। इससे ज्ञात होता है कि वह एक महान् संगीतज्ञ था। स्कन्दगुप्त भी संगीत कला का प्रेमी था, अतः गुप्त सम्राटों के प्रोत्साहन के कारण संगीत कला की पर्याप्त उन्नति हुई।
5. मुद्रा कला : गुप्तकाल में मुद्रा कला के क्षेत्र में भी काफी उन्नति हुई। गुप्त- सम्राटों ने सोने, चाँदी तथा ताँबे की मुद्रायें चलाई। गुप्तकालीन मुद्रायें विदेशी प्रभाव से मुक्त थीं। ये मुद्रायें पिछले सभी भारतीय शासकों की मुद्राओं से अधिक अच्छी तथा सुन्दर ढंग से बनी हुई हैं। उन पर भारतीय भाषा, भारतीय अस्त्र-शस्त्र, भारतीय देवी-देवताओं और भारतीय पशुओं के चित्र अंकित हैं।
गुप्तकाल में दर्शन
1. सांख्य दर्शन : सांख्य दर्शन के अनुसार जगत् का मूल प्रकृति है। इसके तीन भाग हैं—सत्व, रज और तम । पुरुष अनेक और अनन्त हैं तथा प्रकृति स्वयंसिद्ध और अनिवर्चनीय है।
2. योग दर्शन : योग, दर्शन पतंजलि के योग सूत्र’ से शुरू होता है । वाचस्पति मिश्र ने इस विषय पर ‘योगवार्तिक तथा योगसार संग्रह’ नामक ग्रंथ लिखे ।
3. न्याय दर्शन : न्याय पद्धति का मूल ग्रन्थ गौतम का ‘न्यायसूत्र’ है। इस पर वात्स्यायन ने ‘न्याय-भाष्य’ और उद्योतकर ने ‘न्याय – वार्तिक’ नामक ग्रंथ लिखे।
4. वैशेषिक दर्शन : महर्षि कणाद ने वैशेषिक सूत्र की रचना की। वे परमाणुवादी थे तथा आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को मानते थे । आत्मा अनादि और अनन्त है। यह दर्शन धर्म को मोक्ष का साधन मानता है।
5. मीमांसा दर्शन : इसका मूल ग्रन्थ जैमिनी का ‘पूर्व-मीमांसा सूत्र’ है। ‘शबर भाष्य’ पर सातवीं सदी में कुमारिल भट्ट ने ‘श्लोक वार्तिक’, ‘तन्त्रवार्तिक’ नामक टीकाएँ लिखीं।
6. वेदान्त दर्शन : उपनिषद, गीता तथा ब्रह्मसूत्र को दान दर्शन की प्रस्थान कहा गया है। 700 ई. के लगभग गौड़ पाद ने बादरायण के मत को आगे बढ़ाया।
गुप्तकालीन प्रौद्योगिकी
गुप्तकाल में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी उन्नति हुई। कृषि की प्रौद्योगिकी का भी काफी विकास हुआ जिसके परिणामस्वरूप गुप्तकाल में बीन फसले उगाई जाती थीं। उन्नत प्रौद्योगिकी की सहायता से बड़े-बड़े बांधों का निर्माण किया तथा बड़े-बड़े जलाशयों एवं झीलों सिंचाई के लिए नहर बनाई गई। इस युग में हल में लोहे के फाल लगाये गये ताकि भूमि की गहराई के साथ जोता जा सके। शुद्ध प्रौद्योगिकी में भी विकास हुआ। नगरों का घेरा डालने तथा शत्रु सेना को घेरने की नई-नई रणनीतियों का प्रयोग किया जाने लगा।
गुप्तकाल में धातु-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई। महरौली का लौह स्तम्भ इस युग की धातु प्रौद्योगिकी का श्रेष्ठ उदाहरण है। इस युग में सोना, बाँदी, पीतल, काँसा, लोहा आदि के बर्तन, आभूषण, अस्त्र-शस्त्र, मूर्तियाँ आदि बनाने की प्रौद्योगिकी में पर्याण विकास हुआ। उन्नत प्रौद्योगिकी के कारण इस युग में सुन्दर, सजीव और कलात्मक मूर्तियों का निर्माण हुआ। इस युग में वस्त्र प्रौद्योगिकी का भी विकास हुआ। सूती और रेशमी कपड़ा बड़े पैमाने पर तैयार किया जाता था। ढाका की मलमल की प्रौद्योगिकी बहुत उन्नत थी।