खरोष्ठी लिपि का वर्णन करें | BA Notes Pdf

भारतीय उपमहाद्वीप की प्राचीन लिपियों में खरोष्ठी लिपि का विशेष स्थान है। यह लिपि मुख्यतः उत्तर-पश्चिम भारत — विशेषकर वर्तमान पाकिस्तान के गंधार क्षेत्र (तक्षशिला, पेशावर आदि) — में प्रचलित थी। खरोष्ठी लिपि का प्रयोग लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईस्वी तक किया गया।

उत्पत्ति : खरोष्ठी लिपि की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों का मत है कि यह लिपि अरामी लिपि से विकसित हुई। अरामी लिपि उस समय ईरान और मध्य एशिया की राजकीय लिपि थी, और जब आचमेनिड (Achaemenid) साम्राज्य का शासन भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में फैला, तो अरामी लिपि का प्रभाव यहाँ पड़ा। स्थानीय लोगों ने इसे अपनी भाषाओं — प्राकृत और गंधारी — के अनुसार ढाल लिया, जिससे खरोष्ठी लिपि का जन्म हुआ।

काल निर्धारण : खरोष्ठी लिपि के सबसे प्राचीन उदाहरण सम्राट अशोक के शिलालेखों में मिलते हैं। अशोक के कुछ अभिलेख (जैसे शाहबाजगढ़ी और मानसहारा के) प्राकृत भाषा में खरोष्ठी लिपि में लिखे गए हैं। यह लिपि विशेष रूप से गंधार जनपद में प्रयुक्त होती थी, और वहाँ के व्यापारी तथा शासक वर्ग द्वारा अपनाई गई थी।

संरचना एवं विशेषताएँ :

  1. खरोष्ठी लिपि की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि यह दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी, जबकि ब्राह्मी लिपि बाएँ से दाएँ लिखी जाती थी।
  2. यह भी एक ध्वन्यात्मक लिपि थी, जिसमें प्रत्येक अक्षर एक निश्चित ध्वनि को प्रकट करता था।
  3. इस लिपि में लगभग 40 से 45 अक्षर थे, जिनमें व्यंजन और स्वर चिह्न दोनों सम्मिलित थे।
  4. प्रत्येक व्यंजन में मूल रूप से ‘अ’ स्वर निहित होता था।
  5. खरोष्ठी लिपि के अक्षर अपेक्षाकृत कोणीय और रेखीय आकार के थे, जो ब्राह्मी के गोल आकारों से भिन्न थे।
  6. इस लिपि का प्रयोग मुख्यतः गंधारी प्राकृत भाषा के लेखन में किया जाता था।

प्रयोग और विकास : खरोष्ठी लिपि का उपयोग प्रशासनिक अभिलेखों, व्यापारिक दस्तावेजों, सिक्कों और धार्मिक ग्रंथों में हुआ। बौद्ध धर्म के प्रसार के समय गंधार क्षेत्र में लिखे गए कई पाली एवं गंधारी भाषा के ग्रंथ इसी लिपि में मिलते हैं। परंतु मौर्य साम्राज्य के पतन और गंधार क्षेत्र पर यूनानी व शक शासकों के अधिकार के बाद इस लिपि का प्रयोग धीरे-धीरे कम हो गया।

महत्त्व : खरोष्ठी लिपि भारतीय लिपि विकास के इतिहास में महत्वपूर्ण कड़ी है। इससे हमें यह ज्ञात होता है कि भारत की लिपियाँ केवल स्वदेशी प्रभाव से नहीं, बल्कि विदेशी संपर्कों से भी विकसित हुईं। इस लिपि को समझने और पढ़ने का श्रेय जेम्स प्रिन्सेप को ही जाता है, जिन्होंने 19वीं शताब्दी में इसके अभिलेखों को पढ़कर भारतीय इतिहास के नए स्रोत खोले।

निष्कर्ष : खरोष्ठी लिपि भारत की प्राचीन सभ्यता और विदेशी प्रभाव के संगम का उत्कृष्ट उदाहरण है। यह लिपि न केवल भाषाई दृष्टि से, बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी भारत के इतिहास की एक अमूल्य धरोहर है।


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