कक्षा 12 इतिहास के महत्वपूर्ण प्रश्न 2026 | History Class 12 Important Question Answer 2026 | PDF Download

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उत्तर : भगवान महावीर स्वामी जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर थे। उनका जन्म 540 ईसा पूर्व ( 599 ईसा पूर्व, कुछ विद्वानों के अनुसार)  में वैशाली के पास कुंडग्राम नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला देवी था। वे लिच्छवी कुल के क्षत्रिय थे। बचपन से ही वे शांत, करुणामय और सत्यप्रिय स्वभाव के थे। 30 वर्ष की आयु में उन्होंने गृह त्याग कर ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति के लिए बारह वर्ष तक कठोर तपस्या और ध्यान किया। इस तपस्या के बाद उन्हें कैवल्य ज्ञान (सर्वज्ञता) प्राप्त हुआ, और वे “महावीर स्वामी” कहलाए। उन्होंने अपना सारा जीवन सत्य, संयम और अहिंसा के प्रचार में व्यतीत किया। महावीर स्वामी का निर्वाण (मोक्ष) 468 ईसा पूर्व में पावापुरी (बिहार) में हुआ।

उपदेश (शिक्षाएँ) : महावीर स्वामी ने लोगों को सत्य, अहिंसा और आत्मसंयम का मार्ग अपनाने की प्रेरणा दी। उनके मुख्य पाँच उपदेश (महाव्रत) इस प्रकार हैं —

  1. अहिंसा : किसी भी जीव को मन, वचन या कर्म से कष्ट न पहुँचाना।
  2. सत्य : सदैव सत्य बोलना और असत्य से दूर रहना।
  3. अस्तेय : जो वस्तु हमारी नहीं है, उसे बिना अनुमति ग्रहण न करना।
  4. ब्रह्मचर्य : इंद्रियों पर नियंत्रण रखकर पवित्र जीवन जीना।
  5. अपरिग्रह : लोभ, मोह और वस्तुओं का अत्यधिक संग्रह न करना।

महावीर स्वामी ने कहा कि सभी जीवों में आत्मा समान होती है, इसलिए किसी से भेदभाव या हिंसा नहीं करनी चाहिए। उनका जीवन और उपदेश आज भी शांति, सत्य, करुणा और संयम का संदेश देते हैं।

उत्तर : भगवान गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व में लुंबिनी (नेपाल) में हुआ था। उनके पिता का नाम शुद्धोधन और माता का नाम मायादेवी था। उनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ था। बचपन से ही वे दयालु, गंभीर और चिंतनशील स्वभाव के थे।

29 वर्ष की आयु में उन्होंने एक बूढ़े, बीमार, मृतक और संन्यासी को देखकर जीवन के दुखों का अनुभव किया और सत्य की खोज के लिए गृह त्याग कर दिया। उन्होंने कई वर्षों तक कठोर तपस्या और ध्यान किया। अंततः बोधगया (बिहार) में बोधिवृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान (बुद्धत्व) की प्राप्ति हुई और वे गौतम बुद्ध कहलाए।

ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने अपना सारा जीवन लोगों को सत्य, अहिंसा और करुणा का मार्ग दिखाने में लगा दिया। 483 ईसा पूर्व में कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) में उन्होंने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया।

भगवान गौतम बुद्ध ने मानव जीवन को शांति और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उन्होंने सिखाया कि जीवन दुखमय है, और इसके पीछे का मुख्य कारण तृष्णा (इच्छा) है। यदि मनुष्य अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण कर ले, तो दुखों का अंत संभव है। उन्होंने दुखों से मुक्ति के लिए चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया।

अष्टांगिक मार्ग में उन्होंने कहा — सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्म, सम्यक आजीविका, सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि का पालन करना चाहिए। उन्होंने अहिंसा, करुणा, प्रेम, मध्यम मार्ग और कर्म सिद्धांत पर विशेष जोर दिया। बुद्ध ने कहा कि “मनुष्य अपने कर्मों से महान बनता है, न कि जन्म से।

उनकी शिक्षाएँ आज भी मानव समाज को शांति, समानता और आत्मसंयम का सच्चा मार्ग दिखाती हैं।

हड़प्पा सभ्यता, जिसे सिंधु घाटी सभ्यता भी कहा जाता है, विश्व की सबसे प्राचीन और योजनाबद्ध नगर सभ्यताओं में से एक थी।यह  सभ्यता अपनी सुनियोजित नगर योजना और उत्कृष्ट भवन निर्माण कला के लिए प्रसिद्ध थी। इस सभ्यता के सभी प्रमुख नगर—हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, लोथल आदि—नदियों के किनारे बसे थे और ईंटों से निर्मित थे। खुदाई से प्राप्त अवशेषों से नगर निर्माण की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ ज्ञात होती हैं—

  1. दो-स्तरीय नगर – प्रत्येक नगर दो भागों में विभाजित था—ऊपरी नगर (दुर्ग क्षेत्र), जहाँ शासक वर्ग रहता था, और निचला नगर, जहाँ आम जनता का निवास होता था। यह सामाजिक विभाजन और प्रशासनिक व्यवस्था को दर्शाता है।
  2. सड़क व्यवस्था – यहाँ की सड़कें समकोण (90°) पर एक-दूसरे को काटती थीं, जिससे पूरा नगर ग्रिड प्रणाली में बसा था। मुख्य सड़कें चौड़ी और गलियाँ साफ-सुथरी थीं, जो उन्नत शहरी नियोजन को दर्शाती हैं।
  3. जल निकास प्रणाली – हर घर से निकलने वाला गंदा पानी ढकी हुई नालियों में बहता था, जो अंततः मुख्य नालियों से होते हुए नगर के बाहर जाता था। यह प्राचीन विश्व की सबसे विकसित ड्रेनेज प्रणाली मानी जाती है।
  4. सार्वजनिक स्नानागार – मोहनजोदड़ो का विशाल सार्वजनिक स्नानागार अत्यंत प्रसिद्ध था। यह पक्की ईंटों से बना था और विशेष अवसरों पर सामूहिक स्नान के लिए प्रयोग होता था।
  5. अन्नागार – हड़प्पा सभ्यता में अन्नागार बड़े, मजबूत और हवादार भवन थे, जिनमें गेहूँ, जौ आदि अनाज सुरक्षित रखे जाते थे।
  6. आवासीय भवन – घर प्रायः एक या दो मंजिला होते थे, जिनमें आँगन, कमरे, सीढ़ियाँ और रोशनदान ( खिड़की ) बने रहते थे।

अंततः यह कहा जा सकता है कि हड़प्पा सभ्यता के नगर संगठित शासन, स्वच्छता, उन्नत तकनीक और योजनाबद्ध शहरी जीवन के उत्कृष्ट उदाहरण थे।

उत्तर : हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से किसी मंदिर या पूजा गृह के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिले हैं। फिर भी, प्राप्त मूर्तियाँ, लिंग और अन्य अवशेष हमें उनकी धार्मिक मान्यताओं का अनुमान लगाने में मदद करते हैं।

  1. शिव उपासना – हड़प्पा से मिली मूर्तियाँ और लिंग यह संकेत देते हैं कि शिव या लिंग पूजा उनके धार्मिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा थी। ये लिंग पत्थर, मिट्टी और सीप से बने थे और विभिन्न आकारों में पाए गए।
  2. मातृदेवी की पूजा – हड़प्पाई स्थलों से बड़ी संख्या में स्त्री की मूर्तियाँ मिली हैं। इससे लगता है कि वे मातृदेवी की पूजा करते थे।
  3. वृक्ष पूजा – पीपल, बरगद और नीम के वृक्षों को धार्मिक दृष्टि से पूजनीय माना जाता था।
  4. अग्नि और जल पूजा – घरों में पाए गए अग्निसाला और स्नानागार इस बात का संकेत हैं कि अग्नि और जल को धार्मिक अनुष्ठानों में महत्व दिया जाता था।
  5. जादू-टोना और अंधविश्वास – सिंधु सभ्यता के लोग भूत-प्रेत और जादू-टोने में विश्वास रखते थे।

निष्कर्ष : सिंधु घाटी सभ्यता का धर्म प्राकृतिक और प्रतीकात्मक था। वे देवी-देवता, जल, अग्नि और वृक्षों की पूजा करते थे। धर्म उनके जीवन और समाज का अभिन्न हिस्सा था।

उत्तर : सामाजिक स्थिति : हड़प्पा समाज अत्यंत सुसंगठित, विकसित और अनुशासित था। नगरों की सड़कें, जल निकासी प्रणाली और मकानों की योजना यह दर्शाती हैं कि लोग स्वच्छता और व्यवस्था के प्रति जागरूक थे। समाज में पुरुष और स्त्रियों को समान अधिकार प्राप्त थे। स्त्रियों का सम्मान उच्च था, क्योंकि वे मातृदेवी की पूजा करते थे। हड़प्पाई लोग कलाप्रेमी और सौंदर्यप्रिय थे। वे सूती और ऊनी वस्त्र पहनते थे और सोना, चाँदी, कांसा और मोती के आभूषण धारण करते थे। बच्चों के खिलौने और “नृत्य करती कन्या की मूर्ति” यह दर्शाते हैं कि वे मनोरंजन और कला को महत्व देते थे। धार्मिक रूप से वे शिव, मातृदेवी, जल, वृक्ष और अग्नि की पूजा करते थे। समाज में शांति, सहयोग और सामूहिक जीवन को महत्व दिया जाता था।

🟢 आर्थिक स्थिति : हड़प्पा सभ्यता की अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन, शिल्प और व्यापार पर आधारित थी। लोग गेहूँ, जौ, तिल, चना और कपास की खेती करते थे। पशुपालन में गाय, भैंस, भेड़, बकरी और ऊँट शामिल थे। हड़प्पाई लोग कुशल कारीगर और शिल्पकार थे। वे मिट्टी, धातु, पत्थर और शंख से बर्तन, मूर्तियाँ, खिलौने और आभूषण बनाते थे। उनका व्यापारिक जीवन अत्यंत उन्नत था। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहरें इस बात की पुष्टि करती हैं कि उनका व्यापार देश और विदेश, विशेषकर मेसोपोटामिया से होता था। हड़प्पा सभ्यता का आर्थिक जीवन समृद्ध, व्यवस्थित और उन्नत था।

उत्तर – हड़प्पा सभ्यता के पतन के संदर्भ में कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिला है। इतिहासकारों के मत अलग-अलग हैं। फिर भी पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर कुछ मुख्य कारणों का अनुमान लगाया जा सकता है—

  1. बाढ़: हड़प्पा सभ्यता के नगर नदियों के किनारे बसे थे। प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ से कृषि और आवास पर असर पड़ता था। बार-बार होने वाली प्राकृतिक आपदाओं के कारण लोग अपने मूल स्थान को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में जाने को विवश हुए होंगे।
  2. महामारी: मोहनजोदड़ो से प्राप्त मानव कंकालों के अध्ययन से पता चलता है कि हड़प्पा निवासी मलेरिया और अन्य रोगों की चपेट में आए होंगे। इन बीमारियों के कारण जनसंख्या में कमी आई और समाज की संरचना कमजोर हुई।
  3. बाहरी आक्रमण: पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार, हड़प्पा निवासियों पर संभवतः बाहरी आक्रमण हुए। लोगों की हत्या और नगरों की लूट ने समाज और नगर व्यवस्था को कमजोर किया।
  4. जलवायु परिवर्तन: प्रारंभ में हड़प्पा क्षेत्र में पर्याप्त वर्षा और घने जंगल थे। बाद में जंगलों की कटाई और जल स्रोतों का सूखना जलवायु परिवर्तन का कारण बना, जिससे कृषि और जीवनयापन कठिन हो गया।

हड़प्पा सभ्यता का उदय भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग में हुआ था और इसका विस्तार बहुत व्यापक और त्रिभुजाकार स्वरूप में था। इसका क्षेत्रफल लगभग 12,99,600 वर्ग किलोमीटर था, जिसमें वर्तमान भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बड़े हिस्से शामिल थे। जो इसे प्राचीन मिश्र और मेसोपोटामिया की सभ्यताओं से भी बड़ा बनाता है। इस सभ्यता का केंद्र-स्थल मुख्यतः सिंधु और उसकी सहायक नदियों की घाटियों में था, लेकिन यह बाद में दक्षिण और पूर्व दिशा में भी विस्तृत हुई।

इस सभ्यता की भौगोलिक सीमाएँ निम्नलिखित चार मुख्य बिंदुओं द्वारा निर्धारित की जाती हैं:

  1. उत्तरी सीमा: मांडा (जम्मू और कश्मीर)
  2. दक्षिणी सीमा: दैमाबाद (महाराष्ट्र)
  3. पूर्वी सीमा: आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश)
  4. पश्चिमी सीमा: सुत्कागेंडोर (बलूचिस्तान, पाकिस्तान)

इस विशाल विस्तार के कारण, इसके प्रमुख स्थल वर्तमान में कई राज्यों और देशों में पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, पाकिस्तान में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो, जबकि भारत में राखीगढ़ी (हरियाणा), लोथल और धौलावीरा (गुजरात), तथा कालीबंगा (राजस्थान) जैसे महत्वपूर्ण नगर स्थित हैं। यह व्यापक क्षेत्रीय फैलाव इस सभ्यता की विशिष्टता और समृद्धि को दर्शाता है।

उत्तर : मगध साम्राज्य का उत्थान छठी शताब्दी ईसा पूर्व में सोलह महाजनपदों में सबसे शक्तिशाली शक्ति के रूप में हुआ। इसके उत्थान के पीछे कई भौगोलिक, आर्थिक और राजनीतिक कारकों का संयुक्त योगदान था।

मगध का उदय मुख्य रूप से उसकी उत्कृष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण हुआ। यह गंगा और सोन जैसी नदियों के किनारे स्थित था, जिसने इसकी भूमि को अत्यंत उपजाऊ बनाया, जिससे भारी कृषि अधिशेष प्राप्त हुआ। यह अधिशेष राज्य को आर्थिक रूप से मजबूत करने और एक विशाल सेना बनाए रखने में सहायक था। इसके अतिरिक्त, इन नदियों ने यातायात और व्यापार के लिए महत्वपूर्ण जलमार्ग प्रदान किए।

आर्थिक दृष्टिकोण से, मगध के पास लौह अयस्क के विशाल भंडार थे, विशेष रूप से आधुनिक झारखंड के क्षेत्र में। लोहे की उपलब्धता से बेहतर कृषि उपकरण और शक्तिशाली सैन्य हथियार बनाना संभव हो गया, जिसने मगध को अन्य महाजनपदों पर सैन्य बढ़त दिलाई। इसके अलावा, मगध का क्षेत्र जंगलों से घिरा था, जहाँ से लकड़ी और सबसे महत्वपूर्ण रूप से, हाथी आसानी से उपलब्ध होते थे, जिनका उपयोग युद्धों में एक प्रभावी सैन्य इकाई के रूप में किया गया।

राजनीतिक और सैन्य कारणों में, बिम्बिसार, अजातशत्रु और महापद्म नंद जैसे कुशल और महत्वाकांक्षी शासकों का योगदान निर्णायक था। उन्होंने विजय, वैवाहिक गठबंधनों और कुशल प्रशासनिक नीतियों के माध्यम से साम्राज्य का विस्तार किया और एक विशाल स्थायी सेना का निर्माण किया। मगध के पुराने और नए दोनों राजधानियों (राजगृह और पाटलिपुत्र) की सामरिक स्थिति भी अभेद्य थी, जो इसे आक्रमणों से सुरक्षित रखती थी।

             अतः इन सभी कारणों – भौगोलिक स्थिति, आर्थिक संसाधन, सैन्य शक्ति और कुशल नेतृत्व – ने मिलकर मगध को उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली साम्राज्य बना दिया।

मौर्य प्रशासन प्राचीन भारत की सबसे संगठित और शक्तिशाली प्रशासनिक व्यवस्थाओं में से एक था। चंद्रगुप्त मौर्य ने इसे स्थापित किया, और अशोक ने इसे और मजबूत किया । इसकी जानकारी हमें कौटिल्य के अर्थशास्त्र और मेगस्थनीज की इंडिका से मिलती है।

मौर्य प्रशासन केंद्रीकृत था, जिसमें सम्राट सर्वोच्च शासक था। साम्राज्य को प्रांतों में बांटा गया, जिन्हें राजकुमार या विश्वसनीय अधिकारी संभालते थे। प्रांतों के नीचे जिले, गांव और नगर थे। गांवों में ग्रामिक (ग्राम प्रमुख) और नगरों में नगरिक (नगर प्रमुख) प्रशासन देखते थे।

कौटिल्य के अनुसार, प्रशासन में राजस्व, सुरक्षा, और न्याय व्यवस्था पर विशेष ध्यान था। कर संग्रह के लिए समाहर्ता और खर्च के लिए सन्निधाता जैसे अधिकारी थे। सेना और गुप्तचर व्यवस्था मजबूत थी, जो साम्राज्य की सुरक्षा और आंतरिक स्थिरता सुनिश्चित करती थी। न्याय व्यवस्था में राजा और उसके अधिकारी सुनवाई करते थे, और दंड कठोर लेकिन निष्पक्ष थे।

मौर्य प्रशासन ने सड़कें, सिंचाई, और व्यापार को बढ़ावा दिया। अशोक ने बौद्ध सिद्धांतों के आधार पर जनकल्याणकारी नीतियां लागू कीं, जैसे अस्पताल और धर्म प्रचार। यह व्यवस्था संगठन, केंद्रीकरण, और जनकल्याण का अनूठा उदाहरण थी।

उत्तर : गुप्तकाल को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है क्योंकि इस समय भारत ने राजनीति, अर्थव्यवस्था, साहित्य, कला, विज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में असाधारण प्रगति की।

राजनीतिक दृष्टि से गुप्त सम्राटों — चंद्रगुप्त प्रथम, सम्राट समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) — ने एक विशाल और स्थिर साम्राज्य की स्थापना की। इस स्थिरता ने देश में शांति, समृद्धि और व्यापार के विकास को बढ़ावा दिया।

आर्थिक दृष्टि से कृषि, व्यापार और उद्योग फल-फूल रहे थे। सोने के सिक्कों के प्रचलन से गुप्तकाल की आर्थिक समृद्धि स्पष्ट होती है।

सांस्कृतिक दृष्टि से यह काल कला, साहित्य और विज्ञान की दृष्टि से उत्कृष्ट था। इस काल में कालिदास, आर्यभट, वराहमिहिर, और विश्वनाथ जैसे विद्वानों ने अद्भुत योगदान दिया। साहित्य, मूर्तिकला, स्थापत्य कला और चित्रकला ने नई ऊँचाइयाँ प्राप्त कीं।

धार्मिक सहिष्णुता, शिक्षा के केंद्र (जैसे नालंदा विश्वविद्यालय) और समाज में समृद्धि ने इस युग को विशिष्ट बनाया।

           इसलिए गुप्तकाल को “स्वर्ण युग” कहा जाता है, क्योंकि इस समय भारत ने हर क्षेत्र में ऐसा उत्कर्ष प्राप्त किया, जो आने वाले कई सदियों तक मिसाल बना रहा।

उत्तर :  जीवनी – चंद्रगुप्त मौर्य, मौर्य साम्राज्य के संस्थापक और प्राचीन भारत के महान शासक थे। उनका जन्म एक साधारण परिवार में हुआ । उनके प्रारंभिक जीवन के बारे में जानकारी सीमित है, लेकिन चाणक्य (कौटिल्य) ने उन्हें शिक्षा दी और राजनीतिक-रणनीतिक कौशल सिखाया। तत्पश्चात उन्होंने नंद वंश के राजा धनानंद को पराजित कर, मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। चंद्रगुप्त ने एक विशाल और शक्तिशाली साम्राज्य की नींव रखी, जिसका केंद्र पाटलिपुत्र (पटना) था। उन्होंने उत्तरी भारत को एक राजनीतिक इकाई के रूप में संगठित किया। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में, चंद्रगुप्त ने जैन धर्म अपनाया और राजपाट त्यागकर श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में जाकर तपस्या करते हुए देह त्याग किया।

🟢 उपलब्धियाँ :

  1. राजनीतिक एकीकरण: चंद्रगुप्त मौर्य ने भारत के बिखरे हुए राज्यों को एकीकृत कर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की।
  2. सेल्यूकस पर विजय: यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर को हराकर उन्होंने पश्चिमोत्तर भारत को अपने साम्राज्य में मिला लिया और संधि के रूप में 500 हाथी प्राप्त किए।
  3. संगठित प्रशासन: चाणक्य की सहायता से उन्होंने एक केंद्रीकृत प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की, जिसमें कर, न्याय, और गुप्तचर प्रणाली अत्यंत सुदृढ़ थी।
  4. आर्थिक विकास: कृषि, व्यापार और सिंचाई को बढ़ावा देकर उन्होंने राज्य को समृद्ध बनाया।
  5. विदेश नीति: यूनान और अन्य देशों से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए।
  6. धार्मिक सहिष्णुता: शासन के अंत में जैन धर्म को अपनाकर उन्होंने अहिंसा और आत्मसंयम का मार्ग अपनाया।

उत्तर : बौद्ध धर्म, जो कभी पूरे भारत में अत्यंत प्रभावशाली था, धीरे-धीरे अपने प्रभाव और लोकप्रियता को खोने लगा। इसके पतन के मुख्य कारण निम्नलिखित थे:

  1. भिक्षु संघ में अनुशासनहीनता – समय के साथ बौद्ध भिक्षु विलासी जीवन जीने लगे और धर्म प्रचार तथा अनुशासन पर ध्यान कम हो गया, जिससे धर्म की प्रतिष्ठा घटने लगी।
  2. धार्मिक विभाजन – बौद्ध धर्म में हीनयान और महायान शाखाओं का उद्भव हुआ, जिससे धर्म की एकता समाप्त हो गई और अनुयायियों में मतभेद पैदा हुए।
  3. हिंदू धर्म का पुनरुत्थान – गुप्त काल में हिंदू धर्म का प्रभाव बढ़ा और बौद्ध देवी-देवताओं का समावेश हिंदू धर्म में हो गया, जिससे बौद्ध धर्म की विशिष्टता कम हो गई।
  4. राजकीय संरक्षण की कमी – अशोक और कनिष्क के बाद बौद्ध धर्म को बड़े शासकों का संरक्षण नहीं मिला, जिससे इसकी संस्थाएँ और विहार धीरे-धीरे कमजोर हो गए।
  5. विदेशी आक्रमण – तुर्क और मुस्लिम आक्रमणों में बौद्ध विहार और विश्वविद्यालय जैसे नालंदा और तक्षशिला नष्ट कर दिए गए।

निष्कर्ष: बौद्ध धर्म का पतन आंतरिक दुर्बलता, बाहरी आक्रमण और राजकीय संरक्षण की कमी के कारण हुआ, जिससे यह धीरे-धीरे भारत से लुप्त हो गया।

उत्तर : डॉ. बी. आर. अंबेडकर आधुनिक भारत के निर्माता, समाज सुधारक और संविधान निर्माता के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने भारतीय समाज, राजनीति और न्याय व्यवस्था को नई दिशा दी। उनकी भूमिका को निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है –

  1. संविधान निर्माता – डॉ. अंबेडकर भारतीय संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने संविधान में समानता, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को स्थान दिया।
  2. सामाजिक समानता के प्रवक्ता – उन्होंने छुआछूत और जाति प्रथा के खिलाफ संघर्ष किया। उन्होंने समाज के कमजोर और पिछड़े वर्गों को शिक्षा और अधिकारों के माध्यम से आगे बढ़ने का संदेश दिया।
  3. शिक्षा के महत्व पर बल – अंबेडकर मानते थे कि शिक्षा ही असली स्वतंत्रता का मार्ग है। उन्होंने कहा, “शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो।”
  4. आर्थिक सुधार के समर्थक – उन्होंने भूमि सुधार, श्रमिक अधिकारों और आर्थिक समानता की वकालत की।
  5. महिला सशक्तिकरण के समर्थक – संविधान में महिलाओं को समान अधिकार और सम्मान दिलाने में उनका बड़ा योगदान था।

निष्कर्ष : डॉ. अंबेडकर ने भारत को एक लोकतांत्रिक, समान और न्यायपूर्ण राष्ट्र बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके विचार आज भी आधुनिक भारत की नींव माने जाते हैं।

उत्तर : भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा और विस्तृत संविधान है। इसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया। इसकी कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं —

  1. लिखित संविधान – भारतीय संविधान एक लिखित दस्तावेज है, जिसमें 395 अनुच्छेद, 22 भाग और 8 अनुसूचियाँ (शुरुआत में) थीं।
  2. संघीय ढांचा – इसमें केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर सरकार की व्यवस्था की गई है, लेकिन केंद्र को अधिक शक्तियाँ दी गई हैं।
  3. संसदीय शासन प्रणाली – भारत में ब्रिटेन की तरह संसदीय प्रणाली है, जहाँ कार्यपालिका, विधायिका के प्रति उत्तरदायी है।
  4. मौलिक अधिकार – नागरिकों को छह मौलिक अधिकार दिए गए हैं, जैसे – समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, और संवैधानिक उपचार का अधिकार आदि।
  5. मौलिक कर्तव्य और राज्य नीति के निदेशक तत्व – नागरिकों के कर्तव्यों और सरकार के आदर्श लक्ष्यों का उल्लेख किया गया है।
  6. धर्मनिरपेक्षता – भारत में कोई भी राज्य धर्म नहीं है। सभी धर्मों को समान सम्मान दिया जाता है।
  7. स्वतंत्र न्यायपालिका – न्यायपालिका स्वतंत्र है और संविधान की सर्वोच्चता की रक्षा करती है।

निष्कर्ष: भारतीय संविधान लोकतंत्र, समानता, और सामाजिक न्याय पर आधारित है, जो भारत को एक मजबूत और एकजुट राष्ट्र बनाता है।

उत्तर : भारत का विभाजन 1947 में हुआ, जिसके परिणामस्वरूप भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग राष्ट्र बने। इसके पीछे कई राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक कारण जिम्मेदार थे। प्रमुख कारण इस प्रकार हैं —

  1. हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव – ब्रिटिश शासन के दौरान दोनों समुदायों के बीच अविश्वास बढ़ता गया। अलग-अलग धर्म, संस्कृति और सामाजिक रीति-रिवाजों के कारण एकता कमजोर होती गई।
  2. ब्रिटिशों की “फूट डालो और राज करो” नीति – अंग्रेजों ने जानबूझकर हिन्दू-मुस्लिम मतभेद बढ़ाने का काम किया ताकि भारत एकजुट न हो सके।
  3. मुस्लिम लीग की अलग राष्ट्र की मांग – मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने 1940 में ‘लाहौर प्रस्ताव’ पारित किया, जिसमें अलग पाकिस्तान की मांग की गई।
  4. कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच मतभेद – दोनों दलों के बीच सत्ता और प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर समझौता नहीं हो सका।
  5. धार्मिक दंगे और असुरक्षा की भावना – 1946 के बाद कई जगहों पर साम्प्रदायिक दंगे हुए, जिससे दोनों समुदायों के बीच भय और नफरत बढ़ी।
  6. ब्रिटिश जल्दबाजी में सत्ता हस्तांतरण – लॉर्ड माउंटबेटन ने जल्दबाजी में सत्ता भारत और पाकिस्तान को सौंप दी, जिससे विभाजन अनिवार्य हो गया।

निष्कर्ष : इन सभी कारणों के परिणामस्वरूप भारत का विभाजन हुआ, जो इतिहास की एक दुखद घटना मानी जाती है।

उत्तर : महात्मा गांधी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख नेता और सत्य व अहिंसा के प्रतीक थे। उन्होंने अपने नेतृत्व, विचारों और आंदोलनों के माध्यम से भारतीय जनता को एकजुट किया। उनके प्रमुख योगदान निम्नलिखित हैं —

  1. असहयोग आंदोलन (1920) – गांधीजी ने विदेशी वस्त्र, विद्यालय और सरकारी नौकरियों का बहिष्कार करने का आह्वान किया। इस आंदोलन ने जनता में स्वतंत्रता की भावना जगाई।
  2. सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) – नमक कानून तोड़ने के लिए उन्होंने प्रसिद्ध दांडी मार्च किया। इस आंदोलन ने अंग्रेजी कानूनों के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध की मिसाल पेश की।
  3. भारत छोड़ो आंदोलन (1942) – गांधीजी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा देकर अंतिम स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी। इस आंदोलन ने पूरे देश में क्रांतिकारी जोश भर दिया।
  4. सत्य और अहिंसा का सिद्धांत – गांधीजी ने बिना हिंसा के संघर्ष का मार्ग अपनाया, जिससे आंदोलन जन-आंदोलन बन गया और भारत को विश्व में नई पहचान मिली।
  5. सामाजिक सुधार – उन्होंने छुआछूत, शराबबंदी, और महिलाओं की समानता के लिए भी कार्य किया।

निष्कर्ष: गांधीजी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन जन-जन का आंदोलन बन गया और अंततः भारत 1947 में स्वतंत्र हुआ। उनके विचार आज भी शांति और एकता का मार्ग दिखाते हैं।

उत्तर : असहयोग आंदोलन भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक ऐतिहासिक चरण था, जिसे महात्मा गांधी ने असहयोग और अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित किया था। इस आंदोलन का भारतीय समाज और राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसके मुख्य महत्व इस प्रकार हैं —

  1. राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास – इस आंदोलन ने हिन्दू-मुस्लिम, अमीर-गरीब, किसान-मजदूर सभी को एक साथ ला दिया। पूरे देश में राष्ट्रीय चेतना जागी।
  2. जन-आंदोलन का रूप – पहली बार स्वतंत्रता संघर्ष में आम जनता, स्त्रियाँ, विद्यार्थी और किसान सक्रिय रूप से शामिल हुए। इससे आजादी की लड़ाई केवल नेताओं तक सीमित नहीं रही।
  3. विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार – लोगों ने अंग्रेजी वस्त्र, विद्यालय और अदालतों का बहिष्कार किया, जिससे ब्रिटिश शासन की नींव हिल गई।
  4. स्वदेशी और आत्मनिर्भरता का प्रसार – खादी और देशी उद्योगों को बढ़ावा मिला, जिससे आर्थिक स्वावलंबन की भावना जागी।
  5. राजनीतिक चेतना का विस्तार – इस आंदोलन ने लोगों को राजनीतिक अधिकारों और स्वतंत्रता के महत्व को समझाया।

निष्कर्ष : असहयोग आंदोलन ने भारतीय जनता को एकजुट कर स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी। यह आंदोलन भारत की आजादी की नींव साबित हुआ।

भारत छोड़ो आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे प्रभावशाली और निर्णायक आंदोलन था, जिसे महात्मा गांधी ने 8 अगस्त 1942 को “करो या मरो” के नारे के साथ आरंभ किया। इस आंदोलन के पीछे कई प्रमुख कारण थे —

(1) द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की जबरन भागीदारी: ब्रिटिश सरकार ने बिना भारतीय नेताओं से परामर्श किए, भारत को द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल कर लिया। भारत के संसाधनों और सैनिकों का उपयोग ब्रिटिश हितों के लिए किया गया, जिससे भारतीय जनता में गहरा असंतोष फैल गया।

(2) क्रिप्स मिशन की असफलता: 1942 में ब्रिटेन ने भारत को स्वतंत्रता का आश्वासन देने के लिए क्रिप्स मिशन भेजा, लेकिन उसके प्रस्ताव असंतोषजनक और भ्रमित करने वाले थे। इससे यह स्पष्ट हो गया कि अंग्रेज़ भारत को सच्ची स्वतंत्रता देने के इच्छुक नहीं हैं।

(3) अंग्रेज़ों की दमनकारी नीति: अंग्रेज़ों ने भारतीय नेताओं को जेल में डाल दिया, प्रेस की स्वतंत्रता छीन ली और जनता पर अत्याचार किए। इससे जनता में क्रांति की भावना और तीव्र हो गई।

(4) गांधीजी का नेतृत्व और “करो या मरो” का नारा: महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा करते हुए कहा – “करो या मरो।” इस नारे ने पूरे देश में नई चेतना और साहस भर दिया। लोग स्वतंत्रता पाने के लिए किसी भी बलिदान के लिए तैयार हो गए।

निष्कर्ष: इन सभी कारणों ने मिलकर भारत छोड़ो आंदोलन को जन-जन का आंदोलन बना दिया। यह आंदोलन ब्रिटिश शासन के खिलाफ सबसे शक्तिशाली जनविद्रोह था, जिसने भारत की स्वतंत्रता की नींव को हिला दिया और आज़ादी की राह को तेज़ कर दिया।

उत्तर : 1857 की क्रांति, जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है, भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक बड़ा विद्रोह था। इसके कारण और परिणाम निम्नलिखित हैं :

कारण

  1. राजनीतिक कारण : ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की विस्तारवादी नीतियाँ, जैसे डलहौजी का हड़प नीति , ने कई रियासतों (जैसे झाँसी, अवध) को नाराज किया। भारतीय राजाओं और नवाबों की सत्ता छिनने से असंतोष बढ़ा।
  2. आर्थिक शोषण: ब्रिटिश नीतियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को नष्ट किया। भारी कर, जमींदारी प्रथा और भारतीय उद्योगों (जैसे हथकरघा) का पतन हुआ, जिससे किसान और कारीगर परेशान थे।
  3. सामाजिक-धार्मिक हस्तक्षेप: ब्रिटिशों द्वारा हिंदू-मुस्लिम परंपराओं में हस्तक्षेप, जैसे सती प्रथा पर रोक और विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा, को कुछ वर्गों ने अपनी संस्कृति पर हमला माना।
  4. सैनिक असंतोष: एनफील्ड राइफल के कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी के उपयोग की अफवाह ने सिपाहियों को भड़काया। इसके अलावा, सिपाहियों को कम वेतन और अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ा।
  5. ईसाई धर्म का प्रचार: सरकारी स्कूलों और जेलों में ईसाई धर्म के प्रचार ने भारतीयों में यह भय पैदा कर दिया कि ब्रिटिश सरकार उनका धर्म परिवर्तन कराना चाहती है।

परिणाम

  1. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का अंत: 1858 में ब्रिटिश सरकार ने कंपनी का शासन समाप्त कर भारत को सीधे ब्रिटिश ताज के अधीन किया।
  2. प्रशासनिक बदलाव: भारत में गवर्नर-जनरल की जगह वायसराय नियुक्त हुआ। भारतीयों को प्रशासन में सीमित भागीदारी दी गई।
  3. सैन्य सुधार: ब्रिटिश सेना में भारतीय सिपाहियों की संख्या कम की गई और यूरोपीय सैनिकों की संख्या बढ़ाई गई।
  4. राष्ट्रीय चेतना का उदय: 1857 की क्रांति ने हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया और स्वतंत्रता की भावना को जागृत किया, जो बाद के स्वतंत्रता आंदोलनों का आधार बना।
  5. सामाजिक प्रभाव: क्रांति ने भारतीय समाज में एकता और राष्ट्रीयता की भावना को मजबूत किया, लेकिन ब्रिटिशों ने “फूट डालो और राज करो” की नीति अपनाई।

उत्तर : 1857 की क्रांति, जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है, ब्रिटिश शासन के खिलाफ महत्वपूर्ण विद्रोह था, लेकिन यह असफल रहा। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

  1. एकीकृत नेतृत्व का अभाव: क्रांति में रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब, तात्या टोपे और बहादुर शाह जफर जैसे नेताओं ने हिस्सा लिया, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट नेतृत्व नहीं था। स्थानीय नेताओं के बीच समन्वय की कमी ने आंदोलन को कमजोर किया।
  2. सीमित भौगोलिक दायरा: क्रांति मुख्य रूप से उत्तर भारत (दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, झाँसी) तक सीमित रही। दक्षिण, पूर्व और पश्चिम भारत के कई क्षेत्र इससे अप्रभावित रहे, जिससे आंदोलन को व्यापक समर्थन नहीं मिला।
  3. ब्रिटिश सैन्य श्रेष्ठता: ब्रिटिश सेना के पास आधुनिक हथियार, बेहतर संगठन और प्रशिक्षित यूरोपीय सैनिक थे। विद्रोहियों के पास हथियार और रणनीति की कमी थी।
  4. आंतरिक विभाजन: कई भारतीय रियासतें, जैसे ग्वालियर और हैदराबाद, और सिख व गोरखा सैनिकों ने ब्रिटिशों का साथ दिया। यह आंतरिक मतभेद क्रांति की असफलता का बड़ा कारण बना।
  5. संसाधनों की कमी : विद्रोहियों को हथियार, धन और रसद की कमी का सामना करना पड़ा, जबकि ब्रिटिशों को निरंतर संसाधन और सहायता मिलती रही।

प्लासी का युद्ध (23 जून 1757) भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के बीच हुआ। यह युद्ध भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व की नींव साबित हुआ। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

  1. ब्रिटिश व्यापारिक महत्वाकांक्षा: ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल के समृद्ध व्यापार पर नियंत्रण चाहती थी। कंपनी ने बंगाल में अपने व्यापारिक किलों को मजबूत किया, जिसे नवाब ने अपनी सत्ता पर खतरा माना।
  2. किलेबंदी का विवाद: कंपनी ने बिना अनुमति के कोलकाता में फोर्ट विलियम को मजबूत किया। सिराजुद्दौला ने इसे अपनी संप्रभुता का उल्लंघन माना और किले पर कब्जा कर लिया, जिससे तनाव बढ़ा।
  3. काल कोठरी की घटना: 1756 में सिराजुद्दौला ने कोलकाता पर कब्जा किया, और काल कोठरी (Black Hole) में ब्रिटिश कैदियों की मृत्यु की अफवाह ने ब्रिटिशों को बदला लेने के लिए उकसाया।
  4. सिराजुद्दौला का विरोध: सिराजुद्दौला ने कंपनी के दुरुपयोग, जैसे व्यापारिक छूट का गलत इस्तेमाल, को रोकने की कोशिश की, जिससे कंपनी नाराज हुई।
  5. षड्यंत्र और विश्वासघात: रॉबर्ट क्लाइव ने नवाब के सेनापति मीर जाफर के साथ गुप्त साजिश रची। मीर जाफर और अन्य सामंतों के विश्वासघात ने युद्ध में नवाब की हार सुनिश्चित की।

इन कारणों ने प्लासी युद्ध को जन्म दिया, जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटिशों ने बंगाल पर नियंत्रण स्थापित किया।

कृषि के व्यवसायीकरण का अर्थ है ऐसी फसलों की खेती करना जो व्यवसायिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हों और जिनका उपयोग उद्योगों में कच्चे माल के रूप में हो, जैसे कपास, गन्ना, जूट आदि। 19वीं शताब्दी में अंग्रेज़ी सरकार ने भारतीय कृषि को व्यवसायिक स्वरूप देने की नीति अपनाई। जब अमेरिका से कपास की आपूर्ति ठप हो गई, तो अंग्रेज़ों ने भारत में बड़े पैमाने पर कपास की खेती को प्रोत्साहित किया। भारतीय किसान मजबूरीवश कपास की खेती करने लगे, जिसका अधिकांश हिस्सा इंग्लैंड के सूती कारखानों को कच्चे माल के रूप में भेजा गया।

इस व्यवसायीकरण का सबसे दुखद पहलू यह था कि इससे भारतीय किसानों की स्थिति और दयनीय हो गई। किसान बड़े पैमाने पर कर्ज़ लेने पर मजबूर हुए, और सूदखोरों के चंगुल में फँस गए। उत्पादन लागत से भी कम कीमत पर कपास खरीदी जाती थी, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और कमजोर हुई।

कृषि के व्यवसायीकरण ने कुटीर उद्योगों, विशेषकर बुनकरी उद्योग को भी नष्ट कर दिया। अब बुनकरों को कच्चा माल नहीं मिलता था क्योंकि सारा कपास अंग्रेज़ों को निर्यात किया जाने लगा। इसके परिणामस्वरूप बेरोजगारी और भूखमरी की समस्या बढ़ गई।
                                  

                           भारत में कृषि का व्यवसायीकरण केवल अंग्रेज़ों के लाभ के लिए किया गया। भारतीय किसान और कारीगर दोनों ही इससे प्रभावित हुए। यह नीति किसानों के लिए आर्थिक दायित्व और सामाजिक संकट का कारण बनी, जबकि अंग्रेज़ी उद्योगों को बड़े पैमाने पर लाभ हुआ।

भक्ति आंदोलन मध्यकालीन भारत में एक महत्वपूर्ण धार्मिक सुधार आंदोलन था, जिसका उद्देश्य धार्मिक आडंबरों को खत्म करके ईश्वर तक पहुँचने का एक सरल मार्ग प्रदान करना था।

भक्ति आंदोलन के प्रमुख कारण

  1. जटिल हिन्दू धर्म के प्रति असंतोष: उस समय हिन्दू धर्म में जाति-प्रथा बहुत कठोर थी और धार्मिक कर्मकांड (यज्ञ, अनुष्ठान) बहुत महंगे और जटिल हो गए थे। भक्ति आंदोलन ने इन आडंबरों को नकार कर, साधारण प्रेम और भक्ति के माध्यम से ईश्वर तक पहुँचने का आसान रास्ता दिखाया।
  2. इस्लाम का प्रभाव और चुनौती: भारत में इस्लाम के आने से एकेश्वरवाद (एक ही ईश्वर में विश्वास) और समानता के विचारों का प्रसार हुआ। भक्ति आंदोलन ने इस्लाम की इस समानता की चुनौती का जवाब हिन्दू धर्म के भीतर ही समर्पण और समानता पर जोर देकर दिया।
  3. सूफीवाद का प्रभाव: भारत में सूफी संतों की प्रेम और मानवता पर आधारित शिक्षाओं ने भक्ति संतों को प्रेरित किया। सूफी और भक्ति संतों के विचार (जैसे ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत प्रेम) एक-दूसरे से काफी मिलते-जुलते थे।
  4. जनसाधारण की भाषा का उपयोग: भक्ति संतों ने संस्कृत के बजाय आम लोगों की क्षेत्रीय भाषाओं (जैसे हिंदी, मराठी, बंगाली) में उपदेश दिए और भजन गाए। इससे उनका संदेश गाँव-गाँव तक पहुँचा और लोगों के लिए धर्म को समझना सरल हो गया।
  5. संतों का उदय: रामानुज, कबीर, नानक, चैतन्य महाप्रभु और मीराबाई जैसे समाज सुधारक संतों के उदय ने इस आंदोलन को एक मजबूत आधार दिया। इन संतों ने जाति और लिंग के भेदभाव को नकार कर मानव समानता पर जोर दिया।

इस प्रकार, भक्ति आंदोलन जटिल कर्मकांडों के विरुद्ध एक सरल और व्यक्तिगत धार्मिक अनुभव की खोज थी, जिसने समाज में सामाजिक समानता और धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया।

भक्ति आंदोलन भारतीय समाज और संस्कृति पर गहरा प्रभाव डालने वाला धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन था। इसके प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हैं—

1. सामाजिक समानता:भक्ति आंदोलन ने जातिवाद और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। संतों ने यह बताया कि ईश्वर के सामने सभी समान हैं। इससे निचली जातियों और महिलाओं को समाज में अपनी जगह बनाने का अवसर मिला।

2. धार्मिक सुधार:भक्ति आंदोलन ने कर्मकांडी और जटिल धार्मिक रीतियों की बजाय सरल और व्यक्तिगत भक्ति को महत्व दिया। लोगों ने मंदिर या पुजारियों पर निर्भर रहकर नहीं, बल्कि सीधे ईश्वर से प्रेम और भक्ति करने पर ध्यान केंद्रित किया।

3. हिंदू-मुस्लिम समन्वय:संतों ने प्रेम, सहिष्णुता और मानवता के सिद्धांतों पर जोर दिया। राम और रहीम जैसे उदाहरणों ने दोनों समुदायों के बीच समझ और सहयोग को बढ़ावा दिया।

4. साहित्य और कला का विकास:भक्ति आंदोलन ने स्थानीय भाषाओं में भजन, कीर्तन और संत साहित्य को बढ़ावा दिया। इससे साहित्य, संगीत और कला का व्यापक विकास हुआ और आम जनता तक धर्म का संदेश पहुँच सका।

5. आध्यात्मिक जागरूकता:भक्ति आंदोलन ने लोगों में आध्यात्मिक चेतना और नैतिक मूल्यों को मजबूत किया। प्रेम, करुणा और सेवा के विचार समाज में फैलाए।

निष्कर्ष: भक्ति आंदोलन ने भारतीय समाज में सामाजिक सुधार, धार्मिक सरलता, समानता और सांस्कृतिक समृद्धि को बढ़ावा दिया। यह आंदोलन समाज और धर्म दोनों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बना।

सूफीवाद इस्लाम का वह आध्यात्मिक मार्ग है, जो ईश्वर के प्रति प्रेम, भक्ति और आत्मा की शुद्धि पर बल देता है। यह बाहरी धार्मिक कर्मकांड और रस्मों से अधिक, व्यक्ति के भीतर आध्यात्मिक अनुभव को महत्व देता है। सूफी संतों का मुख्य उद्देश्य था ईश्वर के साथ गहन प्रेम और आत्मा का मिलन। उन्होंने जीवन में सादगी, आत्मसंयम और सेवा भाव को प्राथमिकता दी।

सूफीवाद ने समाज में मानवता और समानता का संदेश फैलाया। इसमें जाति, धर्म और सामाजिक भेदभाव को महत्व नहीं दिया गया। सभी मनुष्यों को समान माना गया और प्रेम, करुणा और दूसरों की सेवा को धर्म का मुख्य आधार बताया गया।

सूफियों ने ध्यान, भजन, कीर्तन और कथा वाचन जैसे साधनों से अपनी आध्यात्मिक साधना की। उनकी प्रथाओं और शिक्षाओं से समाज में संगीत, साहित्य और कला का विकास हुआ। भारत में सूफीवाद का सबसे बड़ा प्रभाव भक्ति आंदोलन पर पड़ा, जिसने हिंदू-मुस्लिम एकता और सहिष्णुता को बढ़ावा दिया। सूफियों की दरगाहें आज भी सामाजिक और धार्मिक एकता का प्रतीक मानी जाती हैं।
                               सूफीवाद केवल एक धार्मिक मार्ग नहीं, बल्कि मानवता, प्रेम और आंतरिक शांति का संदेश है। इसने समाज में समानता, आध्यात्मिक चेतना और सामाजिक सद्भाव को मजबूती दी।

उत्तर : विजयनगर साम्राज्य (14वीं से 16वीं शताब्दी) की स्थापत्य कला इसकी सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक उपलब्धि थी। इस कला में स्थानीय द्रविड़ परंपरा और इस्लामी शैलियों का सुंदर मिश्रण दिखाई देता है।

विजयनगर स्थापत्य कला की विशेषताएँ

  1. भव्य मंदिर निर्माण: विजयनगर के शासकों ने कला के अद्भुत नमूने, जैसे विट्ठल स्वामी मंदिर और हज़ारा राम मंदिर का निर्माण कराया। ये मंदिर द्रविड़ शैली की चरम अभिव्यक्ति थे।
  2. विशाल ‘गोपुरम’ और ‘मंडप’: मंदिरों की सबसे बड़ी पहचान इसके ऊँचे और अलंकृत प्रवेश द्वार थे, जिन्हें गोपुरम कहा जाता था। मंदिरों के अंदर स्तंभों वाले विशाल हॉल बनाए जाते थे, जिन्हें मंडप कहते थे। इन मंडपों में देवताओं की मूर्तियाँ और जुलूसों के लिए स्थान होता था।
  3. विशिष्ट स्तंभ (पिलर): स्तंभों का निर्माण इसकी कला की खास पहचान थी। इन स्तंभों पर घोड़ों, हाथियों, और पौराणिक कथाओं के पात्रों की जटिल नक्काशी की जाती थी, जो जीवंत लगती थी।
  4. इस्लामी वास्तुकला का मिश्रण: विजयनगर की धर्मनिरपेक्ष इमारतों (जैसे कमल महल और हाथी अस्तबल) में इंडो-इस्लामी शैली का प्रभाव साफ दिखता है। इन इमारतों में मेहराबों, गुंबदों और प्लास्टर के काम का इस्तेमाल किया गया।

                         विजयनगर की स्थापत्य कला, उसकी मंदिर निर्माण कला की भव्यता, नक्काशीदार स्तंभों की जटिलता और विशाल संरचनाओं के लिए प्रसिद्ध है, जो आज भी हम्पी के खंडहरों में जीवित है।

उत्तर : जीवनी – कृष्णदेव राय विजयनगर साम्राज्य के तुलुव वंश के सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली शासक थे। उनका शासनकाल 1509 ई. से 1529 ई. तक रहा। वे महान योद्धा, योग्य प्रशासक और विद्वानों के संरक्षक थे। उनके समय में विजयनगर साम्राज्य अपनी चरम सीमा पर पहुँचा। वे जनता के प्रिय राजा थे और उन्हें “अभिनव भोज” तथा “अंध्रभोज” की उपाधि दी गई। उनकी राजधानी हंपी कला, संस्कृति और व्यापार का केंद्र बन गई थी।

उपलब्धियाँ :

  1. राजनीतिक उपलब्धि: कृष्णदेव राय ने उड़ीसा, बीजापुर और गोलकुंडा पर विजय प्राप्त की और साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार किया।
  2. प्रशासनिक सुधार: उन्होंने न्याय, कर व्यवस्था और सिंचाई व्यवस्था को सुधार कर जनता का जीवन आसान बनाया।
  3. सांस्कृतिक और साहित्यिक योगदान: वे तेलुगु, संस्कृत और तमिल भाषा के बड़े संरक्षक थे। उन्होंने स्वयं ‘आमुक्तमाल्यदा’ नामक ग्रंथ तेलुगु में लिखा। उनके दरबार में “अष्टदिग्गज” नामक आठ महान कवि थे, जिनमें तेनालीराम सबसे प्रसिद्ध थे।
  4. धार्मिक सहिष्णुता: कृष्णदेव राय सभी धर्मों का सम्मान करते थे और अनेक मंदिरों का निर्माण कराया, जिनमें हंपी का विट्ठल मंदिर विशेष रूप से प्रसिद्ध है।

निष्कर्ष : कृष्णदेव राय एक आदर्श शासक, महान योद्धा और कला-प्रेमी थे। उनके शासन में विजयनगर साम्राज्य समृद्धि और गौरव की ऊँचाइयों पर पहुँचा, इसलिए उन्हें दक्षिण भारत का स्वर्णयुगीन शासक कहा जाता है।

उत्तर : अकबर की धार्मिक नीति, जिसे सुलह-ए-कुल (सार्वभौमिक शांति) की नीति कहा जाता है, मुगल साम्राज्य की स्थिरता और विस्तार के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थी। यह नीति धार्मिक सहिष्णुता, उदारता और सभी धर्मों के प्रति सम्मान पर आधारित थी।

अकबर की धार्मिक नीति की मुख्य विशेषताएँ 🕉️✝️🕌

  1. सुलह-ए-कुल (सार्वभौमिक शांति): यह उनकी धार्मिक नीति का मूल सिद्धांत था। इसका अर्थ था कि सभी धर्मों के प्रति शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और सम्मान बनाए रखा जाए, ताकि कोई भी धार्मिक मतभेद साम्राज्य की एकता को नुकसान न पहुँचाए।
  2. तीर्थ यात्रा कर की समाप्ति: 1563 ई. में अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला तीर्थ यात्रा कर समाप्त कर दिया। यह एक महत्वपूर्ण कदम था जिसने हिन्दुओं का विश्वास जीता और धार्मिक भेदभाव को कम किया।
  3. जजिया कर की समाप्ति: 1564 ई. में, उन्होंने गैर-मुस्लिमों पर लगने वाले जजिया कर को समाप्त कर दिया। यह कदम भारत के धार्मिक इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ और उन्हें ‘राष्ट्रीय सम्राट’ के रूप में स्थापित करने में सहायक हुआ।
  4. इबादतखाना (पूजा घर) की स्थापना: 1575 ई. में, अकबर ने फतेहपुर सीकरी में इबादतखाना की स्थापना की। यहाँ वह विभिन्न धर्मों (इस्लाम, हिन्दू धर्म, जैन धर्म, ईसाई धर्म, पारसी धर्म) के विद्वानों के साथ धार्मिक बहस करते थे, ताकि सभी धर्मों के मूल तत्वों को समझ सकें।
  5. दीन-ए-इलाही: 1582 ई. में, अकबर ने सभी धर्मों के अच्छे तत्वों को मिलाकर दीन-ए-इलाही नामक एक नया आचार संहिता शुरू की। यह कोई धर्म नहीं था, बल्कि एक ऐसी जीवन शैली थी जो सत्य, दया और दान जैसे नैतिक मूल्यों पर आधारित थी।

इस उदार धार्मिक नीति ने अकबर को सभी समुदायों के बीच लोकप्रिय बनाया और उनके विशाल साम्राज्य में राजनीतिक स्थिरता और सद्भाव सुनिश्चित किया।

अकबर ने मुगल प्रशासन को मजबूत करने के लिए मनसबदारी व्यवस्था लागू की। यह सैन्य और प्रशासनिक संगठन की एक अनूठी प्रणाली थी, जिसने साम्राज्य को सुचारु रूप से चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:

  1. मनसबदारी की संरचना: मनसबदारी व्यवस्था में अधिकारियों को ‘मनसब’ (पद या रैंक) दिया जाता था, जो दो प्रकार के होते थे—जात और सवार (सैनिकों की संख्या)। यह रैंक 10 से 10,000 तक हो सकता था।
  2. नियुक्ति और वेतन: मनसबदारों को उनके रैंक के आधार पर जागीर (भूमि) दी जाती थी, जिससे आय प्राप्त होती थी। उच्च मनसबदारों को नकद वेतन भी मिलता था। यह व्यवस्था प्रशासन और सेना को आर्थिक रूप से सशक्त करती थी।
  3. सैन्य और प्रशासनिक जिम्मेदारी: मनसबदारों को सैन्य अभियानों में सैनिक प्रदान करने और प्रशासनिक कार्य, जैसे कर संग्रह और कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी दी जाती थी।
  4. सामाजिक समावेश: अकबर ने हिंदू, राजपूत, और अन्य समुदायों को मनसबदारी में शामिल किया, जैसे राजा मानसिंह और बीरबल, जिससे साम्राज्य में एकता बढ़ी।
  5. नियंत्रण और निगरानी: अकबर ने मनसबदारों की निगरानी के लिए दाग (घोड़ों का चिह्न) और चेहरा (सैनिकों की पहचान) जैसी प्रणालियाँ शुरू कीं ताकि धोखाधड़ी रोकी जा सके।

मनसबदारी व्यवस्था ने मुगल साम्राज्य को संगठित और शक्तिशाली बनाया, जिससे प्रशासन और सेना में दक्षता बढ़ी।

उत्तर : अकबर की भूमिकर प्रणाली, जिसे मुख्य रूप से ज़ब्ती प्रणाली या दहसाला बंदोबस्त के नाम से जाना जाता है, मुग़ल प्रशासन की सबसे कुशल और न्यायसंगत राजस्व व्यवस्था थी। इसे उनके वित्त मंत्री राजा टोडरमल ने विकसित किया था।

अकबर की भूमिकर प्रणाली (दहसाला) 🌾

  1. ज़ब्ती/दहसाला प्रणाली: यह प्रणाली राजस्व निर्धारण का एक उन्नत तरीका था। इसमें पिछले दस वर्षों (दह साल) के दौरान फसल की औसत उपज और स्थानीय कीमतों के आधार पर भू-राजस्व तय किया जाता था।
  2. भूमि का वर्गीकरण: राजस्व की दरें निर्धारित करने के लिए भूमि को उसकी उत्पादकता के आधार पर चार मुख्य वर्गों में बाँटा गया था:
    • पोलज: वह भूमि जिस पर हर साल खेती होती थी।
    • परती: वह भूमि जिसे उर्वरा शक्ति बनाए रखने के लिए एक या दो साल खाली छोड़ा जाता था।
    • चाचर: वह भूमि जिस पर तीन-चार साल बाद खेती होती थी।
    • बंजर: वह भूमि जिस पर पाँच या अधिक वर्षों तक खेती नहीं होती थी।
  3. राजस्व का निर्धारण: उपज के कुल अनुमानित मूल्य का एक-तिहाई (1/3) भाग राज्य के हिस्से के रूप में तय किया गया था। किसान यह कर नकद या वस्तु (फसल) दोनों रूपों में चुका सकते थे, हालांकि नकद भुगतान को प्राथमिकता दी जाती थी।
  4. माप और सर्वेक्षण: इस प्रणाली की सफलता के लिए भूमि का वैज्ञानिक सर्वेक्षण किया गया और भूमि को मापने के लिए ‘इलाही गज़’ नामक मानक इकाई का प्रयोग किया गया।

इस भूमिकर प्रणाली ने किसानों के लिए राजस्व भुगतान को अधिक पारदर्शी और अनुमानित बना दिया, जिससे मुग़ल साम्राज्य को एक स्थिर और निश्चित आय प्राप्त हुई।


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