प्रश्न – असमानता (विषमता) का अर्थ स्पष्ट करें एवं इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।
समता के विपरीत विषमता ( Inequality) का अर्थ है – व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व के पूर्ण विकास का समान अवसर प्राप्त नहीं होना, समाज में विशेषाधिकारों का पाया जाना, जन्म, जाति, प्रजाति, व्यवसाय, धर्म, भाषा, आय व सम्पत्ति के आधार पर अन्तर पाया जाना तथा इन आधारों पर व्यक्ति-व्यक्ति तथा समूह समूह के बीच ऊंच-नीच का भेद मानना एवं सामाजिक दूरी बरतना । शक्ति, सत्ता व प्रभुत्व का असमान वितरण, सामाजिक विभेद तथा उत्पादन के साधनों पर असमान अधिकार विषमता को व्यक्त करते हैं।
विषमता का तात्पर्य एक समाज के लोगों के जीवन-अवसर तथा जीवन-शैली की भिन्नताओं से है जो सामाजिक परिस्थितियों में इनकी विषम स्थिति में रहने के कारण होती है । उदाहरण के रूप में भूस्वामी तथा भूमिहीन श्रमिक ब्राह्मण व हरिजन की सामाजिक परिस्थितियों में पाये जाने वाले अन्तर के कारण उन्हें प्राप्त जीवन-अवसरों तथा जीवन- शैलियों में भी अन्तर देखने को मिलता है। आन्द्रे बिताई ने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि बिना परम्पराओं तथा नियमों के समाज की कल्पना नहीं की जा सकती और ये भी सामाजिक असमानताओं को जन्म देते हैं। प्रकृति द्वारा निर्मित असमानताओं में रूसो – आयु, स्वास्थ्य, शारीरिक शक्ति तथा मस्तिष्क के गुणों को सम्मिलित करते हैं । इनको प्रत्येक समाज में समान महत्व नहीं दिया जाता। यदि हम इस बात को स्वीकार कर लें कि प्रकृति में सर्वत्र अन्तर पाये जाते हैं तो भी यह मानकर चलना पड़ेगा कि अन्तर केवल मूल्यांकन की प्रक्रिया के माध्यम से ही विषमताओं में परिवर्तित होते हैं।
विषमता की विशेषताएँ
(Characteristics of Inequality)
सामाजिक विषमता को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए उसकी कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. विपषमता एक सामाजिक तथ्य है : विषमता एक सामाजिक तथ्य है, इसकी प्रकृति सामाजिक है अर्थात् यह कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं होती वरन् सम्पूर्ण समाज में व्याप्त होती है। विषमता को आयु, रंग, यौन भेद एवं बौद्धिक भेद के आधार पर ही नहीं वरन् समाज में व्यक्तियों को प्राप्त विभिन्न पदों, प्रस्थितियों एवं शक्तियों के आधार पर ही समझा जा सकता है । समाजीकरण के द्वारा व्यक्ति सामाजिक मापदण्डों को सीखता है और अचेतन रूप में विषमता को स्वीकार करता है । सामाजिक संस्थाएँ जैसे धर्म, शिक्षा, परिवार, विवाह, राजनीति एवं अर्थव्यवस्था भी समाज में विषमता उत्पन्न करती है।
2. विषमता का स्वरूप एक समाज से दूसरे समाज में भिन्न होता है : विश्व के सभी समाजों और सभी कालों में विषमता का समान स्वरूप नहीं रहा है वरन् देश एवं काल के अनुसार इसके अनेक स्वरूप देखे जा सकते हैं। मध्य युग में दास एवं स्वामी विषमता के दो प्रमुख स्वरूप रहे हैं। अफ्रीका एवं अमेरिका में प्रजाति भेद-भाव का लम्बे समय से प्रचलन रहा है। भारत में जाति के आधार पर तो पश्चिमी देशों में वर्ग के आधार पर विषमता व्याप्त है। अमेरिकी समाज की वर्ग संरचना स्कैंडिनेविया से भिन्न है । सोवियत संघ में शक्ति का वितरण इंग्लैण्ड से भिन्न है। थाईलैण्ड की तुलना में भारत में पद का वर्गीकरण भिन्न है। इस प्रकार सभी समाजों में विषमता का प्रचलन भिन्न-भिन्न रहा है।
3. विषमता में समयानुसार परिवर्तन होते रहते हैं : विषमता में स्थिरता नहीं पायी जाती है वरन् समय के साथ-साथ इसमें भी परिवर्तन आता है। आज भारतीय जाति व्यवस्था वैसी नहीं है जैसी वह वैद्रिक युग, मध्य युग तथा अंग्रेजों के समय में थी। अमेरिका की वर्ग संरचना आज वही नहीं है जो गृह युद्ध के समय थी। सोवियत रूस में भी 1917 की क्रान्ति के बाद शक्ति वितरण में आमूल-चूल परिवर्तन हुए हैं।
4. विषमता में व्यक्तियों की इच्छानुसार परिवर्तन नहीं हो सकता : चूँकि विषमता एक सामाजिक तथ्य है, इसकी उत्पत्ति सामूहिक अनुभवों के कारण होती है, अतः ज्यों-ज्यों अनुभवों में परिवर्तन होगा, विषमता के स्वरूपों में भी परिवर्तन की सम्भावनाएँ होंगी। विषमता की संरचना में मनमाने व्यक्तिगत निश्चयों से प्रभावकारी परिवर्तन नहीं लाये जा सकते।
5. एक समय में विषमता के कई पहलू साथ-साथ रह सकते हैं : सामाजिक विषमता के कई पहलू हैं, इनकी संख्या इतनी है कि इसकी एक सूची बनाना भी कठिन है। फिर भी आय, व्यवसाय, शिक्षा, शक्ति, धर्म, आदि प्रमुख हैं। एक समय में एक समाज में एकाधिक विषमता के आधार प्रचलित रह सकते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में ही एक जाति, व्यवसाय, वर्ग, पद, शिक्षा और राजनीति के आधार पर सामाजिक विषमता का प्रचलन व्यावहारिक रूप से देख सकते हैं।
6. विपषमता विश्वव्यापी है : दुनिया का कोई भी समाज ऐसा नहीं है जहाँ किसी न किसी आधार पर विषमता न पायी जाती हो। इसके आधारों एवं स्वरूपों में अन्तर हो सकता है, किन्तु विषमता सभी समाजों की विशेषता रही है। मार्क्स का मत है कि प्राचीन समय में आदिकालीन वर्गहीन समाज व्यवस्था थी और आने वाली व्यवस्था समाजवादी या साम्यवादी वर्गहीन समाज के रूप में होगी। किन्तु मार्क्स की कल्पना सही नहीं है। नवीन खोजों से आदिकालीन वर्गहीन समाज की पुष्टि नहीं होती । स्पष्ट है कि विषमता सभी मानवीय समाजों की विशेषता रही है।

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